Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
133
करने के लिये बैठे तब पहरा देने वाले साधु ने आचार्य से रात की घटना को बतलाते हुए उसके प्रायश्चित लेने के लिए प्रार्थना की। गुरु ने कहा कि ईर्यावहीय पूर्वक लोगस्स का काउसग्ग कर लो। इससे रात को लगे हुए अतिचार की आलोचना से शुद्धि हो जाएगी। उपर्युक्त तीनों घटनाओं में हिंसा को स्थान नहीं, क्योंकि यहां प्रमाद का अभाव है।
__ इसी प्रकार यदि जिनप्रतिमा पूजन में उपयोग के न रहने से अथवा भूलचूक से कोई दोष हो भी जाए तो सब क्रियाओं, अनुष्ठानों में प्रमाद के अभाव के कारण हिंसा सम्भव नहीं और उस होने वाले दोष की उपर्युक्त विधि से आलोचना कर लेने से शुद्धि भी हो जाती है।
प्रश्न-अष्टमी चतुदर्शी आदि पर्वतिथियों में अथवा उपवासादि के दिन फल"फूलादि जिन वस्तुओं का तुम्हारा त्याग होता है, उन्हीं वस्तुओं को पूजा के प्रयोग में लाने से दोष के भागी बनते हो और इससे नियम भंग ही होता है।
समाधान -(1) पर्वतिथियों के दिनों में अथवा उपवासादि में त्याग होता है 'परन्तु वह त्याग इसलिए होता है कि उन वस्तुओं को अपने भोगोपभोग के काम में न लिया जाए पर साधु मुनिराज को आहार आदि देने में तथा प्रभु की पूजा भक्ति आदि में उन द्रव्यों का उपयोग अर्पण और त्याग की भावना में है अर्थात् साधु-साध्वी को, किसी आवश्यकता वाले को अपनी त्याग की हुई वस्तु से यदि उनका लाभ होता है तो उन्हें वह वस्तु देने से हमारा त्याग तथा उस पर उपकार होता है और प्रभु की पूजा-भक्ति आदि में भी फल-फूल आदि पूजा की सामग्री चढ़ाकर उनका त्याग किया जाता है और उन द्रव्यों को चढ़ाकर प्रभु से अपने लिए अनाहारी अनाभोगी पदपाने की प्रार्थना की जाती है। इसलिए इसमें कोई दोषवाली बात नहीं है । इसे विशेष खुलासा करने के लिए यहां कुछ विचार करना आवश्यक है । देखिए :--
(2) आपका उपवास है, उस दिन साधु आहार-पानी के लिए आपके घर आता है, आप उसे आहार-पानी देंगे या नहीं ? यदि देगे तो आपके कथनानुसार आपका •त्याग होने से आपको व्रत भंग का दोष लगेगा, आपका त्याग होने के कारण आपको साधु को आहार-पानी नहीं देना चाहिए, फिर क्यों देंगे। पर आप देंगे अवश्य । तो आप ही बताइए कि आप ने धर्म किया अथवा अधर्म ? खूबी तो यह है आपका त्याग होने पर भी आप साधु को आहार-पानी देने में और उनकी आवभगत, सत्कार आदि करने में अपना महान पुण्योदय मानते हैं । जो रसोई तैयार की गई उसमें हिंसा भी अवश्य हुई, साधु के आहारादि लेने के लिए आने-जाने में भी हिंसा सम्भव है । हिंसा से तैयार किए हए आहार पानी को लेने के लिए आने-जाने से जीवों की विराधना “करके साधु ने आहारादि लेकर उदरपूर्ति की और आप ने भी हिंसा द्वारा तैयार किया
हुआ आहार-पानी अपने को उपवास होने के कारण त्याग होने पर भी साधु को देकर . अने को। कृत्यकृत माना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org