Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। लाखों रूपये की थैली भेंट करने से भी फूलों द्वारा किए गए सम्मान की तुलना नहीं हो सकती।
पूजा में सचित्त जल के प्रयोग में भी हिंसा नहीं है जिस प्रकार तीर्थंकर प्रभु के जन्म और दीक्षा कल्याणकों के समय सचित जल से स्नान कराया जाता है, निर्वाण के बाद भी तीर्थकर के शव को सचित जल से ही स्नान कराकर उसका दाह संस्कार किया जाता है। जिनप्रतिमा को प्रक्षाल भी तीन कल्याणकों के निमित ही कराया जाता है, जन्म, दीक्षा और निर्वाण कल्याणकों के उपलक्ष में तीनों अवसरों पर तीर्थंकर को सचित जल से ही स्नान कराने का विधान है । ऐसा जैनागमों में श्री तीर्थंकर प्रभु ने अपने श्री मुख से फ़रमाया है । इसी प्रकार जब गृहस्थ जैनसाधु-साध्वी की दीक्षा लेते हैं तथा साधु अवस्था में जब उनका स्वर्गवास होता है तब भी उन्हें सचित जल से ही नहलाया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता । पर इसमें प्रभु की आज्ञा का पालन होने से धर्म ही है। इस नियमानुसार प्रभु पूजन में सचित जल के प्रयोग में कोई दोष नहीं है। हिंसा के लक्षणों में हम बतला चुके हैं कि जहां राग-द्वेष अथवा प्रमाद होता है वहीं हिंसा है । पर प्रभु भक्ति में राग-द्वेष प्रमाद को अवकाश नहीं। इस में न तो रागद्वेष है और न ही असावधानी । पानी को छान कर उस परिमित जल में दूधादि द्रव्यों को मिला कर पंचामृत बना लेने से वह अचित हो जाता है उस से स्नान कराकर प्रतिमा जी को थोड़े से सादा जल से स्नान करा कर स्वच्छ कपड़ों से पोंछकर एकदम निर्जल कर लिया जाता है। इस प्रकार प्रभु आज्ञा का पालन तथा प्रमाद का अभाव होने से हिंसा का सर्वथा अभाव है।
पजा में फलादि चढ़ाने में भी हिंसा नहीं है__फलों को लाकर प्रभु के सामने एक पट्टे पर रखकर पूजा की जाती है उन्हें काटना, छीलना, बिदारना आदि से पाड़ा नहीं पहुंचाई जाती है। इसलिए फल पूजा में भी हिंसा को अवकाश नहीं।
मिठाई-पकवान तथा अक्षत (चावल) भी अचित होने से पूजा में प्रभु के सम्मुख चढ़ाने में हिंसा नहीं है ।
धूप को छेदों वाले ढकने वाली धूपदानी में तथा दीपक को लालटेन में ढांक कर पूजा के काम में लिया जाता है। ये सचित होने पर भी पूजा में प्रमाद न होने से हिंसा संभव नहीं है। जिन प्रतिमा पूजन का उद्देश्य तथा पजा सामग्री की उपयोगिता
पूजन में विवेक मुख्य है । प्रमाद अर्थात् रागद्वेष, इन्द्रिय विषयों का तोष, विकथा आलस्य एवं असावधानी को अवकाश नहीं है । प्रमाद से ही प्राणों को क्षति पहुंचाना हिंसा है। अत: जिनप्रतिमा पूजन के विधानों में उपयोग में लाये जाने वाले द्रव्यों को चढ़ाने से हिंसा कदापि नहीं होती। प्रभुपूजन की विधि विधानों में हिंसा
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