Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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सामात् जिनेन्द्र तथा उनकी अनुपस्थिति में जिन प्रतिमा द्वारा ही
प्रात्मकल्यारण संभव है हमारे सामने जैसा आदर्श होगा वैसा ही हम बनेंगे। चित्रकार के सामने अथवा कल्पना में जैसा चित्र होगा, वैसा ही वह चित्रित कर पायेगा। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए वीतराग सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बनने के लिए वीतराग सर्वज्ञ तीर्थ करों की भक्ति उपासना से ही आत्मकल्याण संभव है अन्यथा नहीं । क्योंकि मात्र तीर्थ कर ही जीवित साकार परमात्मा है उन्होंने अपने पुरुषार्थ से ईश्वरत्व प्राप्त किया है । वे स्वयं शुद्ध निर्मल पवित्र अनन्तगुण सम्पन्न परमात्मा बने हैं । उन्होंने स्वयं ही इस मार्ग का आचरण करके जाना है इसलिए उन्हीं का उपदेश धर्म तत्व का सच्चा मार्ग है । रागी, द्वेषी, कामी, छद्मस्य को स्वयं वस्तु-तत्त्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता इसलिए उसके उपदेश में भी यथार्थता नहीं होती। मात्र वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर परमात्मा का बतलाया हुआ मार्ग, आचार और विवार, चारित्र और उपदेश ही सदा सर्व था सत्य हैं, सम्यक् हैं, यथार्थ हैं, संसार सागर में भटकते प्राणियों के लिए शाश्वत सुख मोक्ष का दाता हैं। वह स्व-पर प्रकाशक है। तीर्थकर परमात्मा के अभाव में उनकी वाणी रूप आगम हैं और उनके साक्षात् दर्शन पाने के लिए प्रशांत-रस-निमग्न उनकी प्रतिमाएँ हैं। जो व्यक्ति सदा श्रद्धा पूर्वक स्चयं तीर्थकर भगवन्तों की वाणी को सवगुरुओं के मुख से श्रवण करता है उसका स्वाध्याय करता है उन का ज्ञान निमल परिष्कृत होते हुए वृद्धि को प्राप्त करता है । जिससे उसे सम्यक् श्र तज्ञान की प्राप्ति होती हैं । मोहनीय, ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय अन्तराय चारों घातीया कर्मों का क्षयोपशम निर्मल बन जाता है। तीर्थ:कर भगवन्तों की प्रतिमाओं की श्रद्धा और भक्ति पूर्वक वन्दना-दर्शन पूजनादि करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और उत्तरोत्तर निमलता पवित्रता में वृद्धि होती रहती हैं। अन्त में क्षयोपशम सम्यक्त्व क्षायिक होकर अनन्तता को प्राप्त कर लेता है सम्यर-... दर्शन (श्रद्धा) तथा सम्यग्ज्ञान से वीतराग सर्वज्ञ के स्वरूप को जानने पर उनके. प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति जाग्रत होगी। श्रद्धा भक्ति जाग्रत होने से उनके बतलाये हुए मार्ग-धर्म को आचरण में लाने की भावना जाग्रत होगी और उनके बतलाये गए आचार और विचार को आचरण में लाने के सौभाग्यवान बन पायेंगे । सम्यक आचरण से ही आत्मा का कल्याण संभव है। विनय की सज्झाय में मुनि श्री उदय वाचक ने कहा है कि
नाण विनय थी पामिये जी, नाणे दर्शन शुद्ध । ...चारित्र दर्शन थी हुए जी, चारित्र थी गुण सिद्ध ॥1॥
अर्थात्-विनय से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान से दर्शन (श्रद्धा) की शुद्धि होती है एवं सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन से सम्यक् चारित्र के पालन करने की
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