Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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श्री जितेन्द्र प्रभु को फूलों से पूजा - ( वृहत्कथा कोष-कथा 56 )
तेर नगरी में धर्ममित्र नाम का एक सेठ रहता था । उसने अपनी गाय-भैंसों को चराने के लिए धनदत्त नामक एक ग्वाले के पत्र को रख लिया था । एक बार
उसने कलनन्द नाम के सरोवर में से एक कमल का फूल तोड़ लिया । यह देखकर सरोवर की रक्षिका देवी बड़ी रुष्ट हो गयी । उसने कहा- जो लोक में सर्वश्रेष्ठ है, उसकी पूजा इस कमल द्वारा करो । यदि ऐसा नहीं करोगे तो मैं तुम्हें योग्य शिक्षा दूंगी' बालक कमल लेकर अपने स्वामी के पास गया। स्वामी ने वृतांत सुन कर उसे राजा के पास भेजा। साथ में सेठ स्वयं भी गया । राजा सब के साथ उस बालक को दिगम्बर मुनि के पास ले गया । अन्त में मुनि की सलाह से सेठ उसे जिनेन्द्रदेव के पास ले गया। वहां जाकर उस ग्वाल बालक ने बड़ी भक्ति के साथ उस कमल को जिनेन्द्र भगवान् के चरणों पर चढ़ाकर पूजा की और नमस्कार : करके सेठ के साथ घर वापिस चला गया ।
श्राराधना कोश में करकंडु चरित्र में लिखा है कि तदा गोपालकः सोपि स्थित्वा श्री मजिनाग्रतः । भो ! सर्वोत्कृष्ट ते पद्मं ग्रहाणेंदमिति स्फुटम् ॥ उक्त्वा जिनेन्द्र- पादाब्जोपरि क्षिप्त्वाशु पंकजं । गतो मुग्धजनानां च भवेत्सत्कर्म शर्मदम् ॥2॥
अर्थात् - तब वह ग्वाला श्री जिनेश्वर के सामने खड़े हो कर कहता है कि हे प्रभो ! यह सर्वोत्कृष्ट कमल ग्रहण करो ऐसा कहकर श्री जिनेन्द्र के चरण कमलों पर उस कमल को रखकर पूजा करके अपने घर वापिस गया ।
सारांग - दिगम्बर मुनि के आदेश से ग्वाले ने श्री जिनेन्द्रदेव के चरणों की सचित कमल पहुप से पूजा की ।
(2) भेंढक द्वारा सचित कमल पुष्प से भगवान् महावीर की पूजा के लिए जाना
भेको विवेक विकलोऽप्यजनिष्ट नाके, दन्तै गृहीत कमलो जिनपूजनाय । गच्छन् सभां गज-हतो जिन-सन्मते स नित्यं ततोहि जिनयं विभुमर्चयामि ||
(पण्या व कथाकोष 1 / 3 ) अर्थ - जिन सन्मति ( महावीर - वर्धमान ) की समवसरण सभा में जिन जन के लिए दाँतों में कमलपुष्प लेकर जाने वाला अबोध मेंढक हाथी के पैरों तले कुचल कर मर गया और ( जिनेन्द्रदेव की पूजा की भावना से ) स्वर्ग को प्राप्त हुआ (पूजा के भावों का विचारकर ) मैं नित्य ही जिनप जन को करता हूँ ।
13- पुष्पाँजली व्रत में जिनप्रतिमा की पुष्पों से पूजा
पुष्पांजलिस्तु भाद्रपद शुक्ला पंचमीमारभ्य नवमीपर्यतं भवति पंचदिनपर्यन्तं उपवासं करणीय' ' तत्र केतकी कुसुमादिभिः चतुर्विंशतिः विकसित सुगन्धित सुमनो-
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