Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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छट्ठा प्रकाश क्या प्रतिमा पूजन में हिंसा, आडम्बर, भोग-परिग्रह आदि दोष हैं ?
मूर्तिपूजा के विरोध में विशेष रूप से कहा जाता है कि
1. पूजा में सचित जल, फूल, फल, धूप, दीप, आरती आदि द्रव्यों के उपयोग से हिंसा होती है एवं अलंकार आंगी आदि की पूजा से तीर्थंकर भोगी और परिग्रही हो जाते है। अतः इन द्रव्यों का उपयोग जिनप्रतिमा के पूजन में करना सर्वथा अनुचित है।
2. पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों के दिन अथवा पर्यषण आदि महापों में जब सब्जियां आदि सचित आहार का श्रमणों तथा श्रावकों को त्याग होता है तब उन दिनों में भगवान की पूजा में ऐसे सचित द्रव्य चढ़ाने में दोष क्यों नहीं ?
3. तीर्थंकर प्रभु तो सर्वथा त्यागी हैं ऐसी अवस्था में उनकी पूजा में द्रव्यों का उपयोग करना अनुचित है।
4. यदि द्रव्यपूजा में हिंसा नहीं है तो साधु के लिए द्रव्य पूजा का निषेध क्यों?
इन प्रश्नों का समाधान करने से पहले आवश्यक है कि-हिंसा-अहिंसा के स्वरूप को समझ लिया जावे, ताकि वस्तुस्थिति को भली-भांति समझा जा सके और मर्तिपूजा के विरोध में किये गये इन कुतर्कों तथा कुयुक्तियों में कितनी निःसारता है उसे भी समझा जा सके।
हिंसा-अहिंसा का स्वरूप ___ अहिंसा अन्य व्रतों की अपेक्षा प्रधान व्रत होने से तथा अन्य व्रत इसकी पति के लिये होने से उसका व्रतों में प्रथम स्थान है । खेत की रक्षा के लिये जैसे वाड़ होती है वैसे ही अन्य सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिये हैं ! इसीलिये अहिंसा की प्रधानता मानी गई है।
निवृत्ति और प्रवृत्ति में व्रत के दो पहलू हैं । इन दोनों के होने में ही व्रत पूर्ण बनता हैं । सत्कार्य में प्रवृत्ति होने में व्रत का अर्थ है कि उसके विरोधी असत्कार्यों से पहले निवृत्त हो जाना, यह अपने आप प्राप्त होता है। इसी तरह असत्कार्यों से निवृत्त होने का मतलब है उसके विरोधी सत्कार्यों में मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करना । यह भी स्वतः प्राप्त है।
हिंसा का स्वरूप वाचक उमास्वाती ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7 में हिंसा का स्वरूप इस प्रकार
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