Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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जैनधर्म का गौरव और प्राचीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। भारत में मुर्तिविरोधी विदेशी मुसलमानों के आक्रमणों से और उन का शासन स्थापित हो जाने पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में श्वेतांबर जैनधर्मं में से सर्व प्रथम एक मूर्ति: विरोधी पंथ का प्रादुर्भाव हुआ । जो आज स्थानकवासी मत के नाम से प्रसिद्ध हैं । इस मत का संस्थापक एक गुजराती गृहस्थ लोंकाशा था । प्रथम यह मत लुकामत के नाम से प्रसिद्धि पाया । पश्चात् इस पंथ के लवजी साधु ने विक्रम की 18 वीं शताब्दी में ढू ढक मत, तथा बाईस टोला नाम दिया । फिर श्रमणोपासक और आजकल - स्थानकवासी नाम से भारत में सर्वत्र विद्यमान हैं। विक्रम की 18 वीं शताब्दी के अन्त में भीखन जी ठूौंढक साधु ने एक नये पंथ की स्थापना करके मूर्तिपूजा के विरोध के साथ दान और दया का भी निषेध करके तेरहपंथ की स्थापना की और 16 वीं से 18 वीं शताब्दी के बीच दिगम्बरों में भी तेरहपंथ, तारणपंथ आदि स्थापित हो गये जिनका विवरण हम पहले कर चुके हैं। मुसलमानों की संस्कृति का दूषित प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर पड़ चुका था । अनेक अज्ञान व्यक्तियों ने बिना कुछ सोचे समझे अनार्यं संस्कृति का अन्धानुकरण कर के मन्दिरों और मूर्तियों को क्रूर दृष्टि से देखना शुरु किया
उपयुक्त जैनों के मूर्तिविरोधक पंथों के सिवाय, सिखों में गुरुनानक, जुलाहों में कबीर, वैश्नवों में रामानुज और अंग्रेजों में मार्टिनल्युथर आदि अनेक व्यक्तियों ने संस्कृति कला, सभ्यता, इतिहास के स्तम्भ रूप मन्दिरों और मूर्तियों के विरुद्ध जिहाद शुरु कर दिया और ईश्वर की उपासना के लिए इन जड़ पदार्थों की कोई जरूरत नहीं है, ऐसी घोषणा करके मूर्तियों द्वारा अपने-अपने इष्ट देवों की उपासना करने वालों को आत्म कल्याण के सार्ग से छुड़ा दिया । इसी प्रकार आर्य समाज संस्थापकस्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी मूर्तिमान्यता के विरोध में अपनी शक्ति को विशेष रूप से लगा दिया |
यहाँ तो मात्र जैनधर्मं की दृष्टि से मूर्ति मान्यता के महत्त्व पर विचार करना हैं । इसलिए इसके विरोध में जो जो शंकायें उपस्थित की जाती है उन्ही का समाधान करते हैं ।
मूर्ति पूजा से लाभ
मूर्ति पूजा की भावनाओं ने बड़े - बड़े उत्कृर्ष किए । मूर्तिपूजा के निमित्त देश में लाखों मन्दिर बने, शिल्प कला का खूब विकास हुआ । मूर्ति पूजा ने लोगों में विस्तृत धर्म भावना उत्पन्न की और उस के निमित्त लोगों को अपनी विनिमय करने का अवसर प्राप्त हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप त्याग और उदारता के उच्च गुणो का विकास हुआ । मूर्तिपूजा ने गांव- गाँव, नगर-नगर में सार्वजनिक
1- 2 दिगम्बर ढू ढकादि पंथों की विशेष जानकारी के लिए देंखे"मध्यएशिया और पंजाब में जैनधर्म" नामक इतिहास ग्रंथ को
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