Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 133
________________ 116 कथा), 1. मद-मतवालापन, अयतना, लापरवाही, 5 इद्रियों के विषय (रूप, रस, गंध, वर्ण, स्पर्श) 4 कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), 1 निन्द्रा, इनमें से किसी एक अथवा अनेक के संबंध से होने वाला भाव अथवा द्रव्य प्राण वध हिंसा है। जो अप्रमाद से अर्थात् जयना और उपयोग से कार्य करता है उससे कदाचित जीववध हो जाय तो भी उसे भाव से जीव-हिंसा का दोष नहीं लगता। दष्टांत 1-नदी में उतरने वाले साधु को यत्ना और उपयोग सहित पानी में उतरने पर भी अप्काय जीवों की विराधाना भाव हिंसा का कारण नहीं है। जैन शास्त्रों की मान्यता है कि पानी की बूंद में असंख्यात् जीव हैं । यदि सेवाल वाला पानी हो तो उसमें अनन्त जीवों का विनाश संभव है । यदि नदी उतरने वाला मुनि प्रमादी हो तो उसे हिंसा का दोष लगता है अप्रमादी को नहीं। 2-श्री भगवती सूत्र में कहा है कि केवल-ज्ञानी को गमनागमन से तथा नेत्रों के चलनादि से बहुत जीवों का घात होता है। परन्तु उन्हें मात्र योग द्वारा ही बंध होने से प्रथम समय में कर्म बांधते हैं, दूसरे समय वेदते हैं और तीसरे समय निर्जरा कर देते हैं । और भी कहा है: यदि संकल्पतो हिंसा-मन्यस्योपरि चिन्तयेत । तत्पापेन लिजात्मगहे दुःखावनौ च पाल्यते ॥1॥ जंज समयं जीवो आवस्सइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समये सुहासुहं बंधए कम्मं ॥2॥ अर्थात-जो प्राणी संकल्प से दूसरे के ऊपर हिंसा का चिंतन करता है तो पाप से वह अपनी आत्मा को ही दुःख की भूमि में गिराता है । जिस जिस समय जीव जिस जिस भाव में होता है वैसे ही शुभाशुभ कर्म बांधता है। और भी कहा है कि: चउदसपुटिव आहारगार्य, मणनाणि वीयरागा वि । हंति पमाय परवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥3॥ अर्थात्-चौदहपूर्वधर, आहारक शरीर का धनी, मनःपर्यवज्ञानी, तथा उपशांतमोही वीतराग (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) भी प्रमाद के वश होकर चारों गतियों में भ्रमण करते हैं। श्री आचारांग सूत्र में कहा है कि: "पमत्तस्स सव्वओ भयं, अपमत्तस्स वि न कुतो भयमिति ॥" अर्थात-प्रमादी को सब भय हैं किंतु अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं है । इसी लिए शास्त्रीय परिभाषा में ऐसी हिंसा को द्रव्य हिंसा किंवा व्यवहारिक अथवा स्वरूप हिंसा कहा है। इस हिंसा का अर्थ इतना ही है कि इस द्रव्य हिंसा में स्वेच्छा नहीं, इच्छा भी नहीं, भावना भी नहीं है । यह स्वाभाविक है । ऐसी हिंसा तो हर समय होती ही रहती है । यह तो केवली को भी होती है । ऐसी हिंसा को रोक - यानव शक्ति से बाहर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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