Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
90
भिश्चतुर्विशिति जिनान् पूजयेत् । पंचवर्षानन्तर उद्यापन कार्यम् केवलज्ञान संप्राप्तिरेतं मुक्तिप्रदं च पार पण भवति ।
अर्थात्पप्पांजलि व्रत भादों सुदि पंचमी से नवमी तक पांच दिन उपवास करके करना चाहिए। इस व्रत में केतकी आदि के विकसित (खिले हुए) सुगन्धित पुष्पों से चौबीस तीर्थंकरों की पूजा करें। पांच वर्षों में इस तप को पूरा करके पश्चात् उद्यापन करें। इस तप से केवलज्ञान की प्राप्ति और परम्परा से सर्वकर्मों का क्षय करके मुक्ति की प्राप्ति होती है !
14-जिन प्रतिमा को मुकुट और मालाओं से अलंकार पजा। (1) शीर्षमुकुट तथा निर्दोष सप्तमी व्रत
मुकुट सप्तमी तु श्रावण शुक्ल सप्तम्येव ग्राह या, नान्या, तस्याम आदिनाथस्य वा पार्श्वनाथस्य, मुनिसुव्रतस्य च पूजां विधाय कण्ठे मालारोपः। शीर्षमुकुट च कथितमागमे निर्दोषसप्तमि व्रतं । सप्तवर्षावधि यावत् अनयो : ब्रतयोः विघानम् कार्यम् ।।
___ अर्थात्-श्रावण शुक्ला सप्तमी को ही मुकुटसप्तमी कहा जाता है। अन्य किसी महीने की सप्तमी का नाम मुकुटसप्तमी नहीं है । इस दिन आदिनाथ, अथवा पार्श्वनाथ अथवा मुनिसुव्रतस्वामी का पूजन कर उनके गले में माला पहनावें और सिर पर मुकुट पहनावें । आगम में इस को निर्दोष सप्तमी भी कहा है । सात वर्ष तक इस ब्रत का विधान करें।
(2) शीर्षमुकुट सप्तमी व्रत (दिगम्बर सिंहनन्दी)
। अथ श्रावणस्य शुक्लपक्षे सप्तमी-दिनेप्यादिनाथस्य वा पार्श्वनाथस्य कण्ठे मालारोपः शीर्षमुकुटञ्च स्थाप्य उपवासं कुर्यात् । न तु एतावता वीतरागत्वं हानिभर्वति कापि कन्या तु स्ववैधव्य निवारणाय जिनशासनऽऽगमोक्त विधि पालयते । एताविधि निन्दकास्तु जिनागमद्रोही जिनाज्ञालोपी भवतीति न संदेहकार्या: सकलकीतिभिः स्वकीये कथाकोषे श्रुतसागरैस्तथा दामोदरैस्तथा देवनन्दीभिरभ्रदेवश्च तथैव प्रतिपादितमतः पूर्वक्रमोज्ञेयः) ।
अर्थात्-श्रावण शुक्ला सप्तमी को श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) भगवान अथवा श्री पार्चनाथ प्रभु के कण्ठ में माला और सिर पर मुकुट पहना कर पूजा एवं उपवास करना-यह शीर्षमुकुटसप्तमी व्रत है। श्री वीतराग प्रमु के गले में माला और सिर पर मुकुट पहनाने से वीतरागता को हानि नहीं होती। क्योंकि कोई भी कन्या अपने वैधव्य के निवारण के लिये जिनागम में बतलाई हुई विधि का पालन करती है। जो कोई इस विधि की निन्दा करता है वह जिनागमद्रोही तथा जिनाज्ञालोपी होता है। इसलिये इस विधि में संदेह नहीं करना चाहिये । सकलकीर्ति आचार्य ने अपने कथाकोष में तथा श्र तसागर, दामोदर, देवनन्दी और अभ्रदेव आदि ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org