Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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प्रतिमा (तीर्थकर भगवन्तों की प्रतिमाओं) के कट्टर विरोधी हुए । विक्रम की 16वीं शताब्दी में (जहाँगीर के राज्यकाल में ) आगरा में बनारसीदास श्रीमाल तथा भैया भगवतीदास ओसवाल दोनों ने अन्य तीन दिगम्बर श्रावकों के साथ मिलकर (पांचों )
दिगम्बरों की पूजापद्धति में हिसा बतलाकर जिनप्रतिमा की पूजा में फल, फूल, नैवेद्य आदि सचित सामग्री का निषेध करके उसके बदले में लवंग, नारियल के गोले के टुकड़ों आदि सामग्री का प्रयोग चालूकर तेरहपंथ मत की स्थापना की ( जो बनारसीमत के नाम से भी प्रसिद्ध था) इस प्रकार लुंकामत और बनारसीमत का प्रादुर्भाव पूजापद्धति के विरोध में हुआ । दिगम्बर पंथ में 18वीं शती में तारणस्वामी ने मूर्तिमान्यता के निषेध में तारणपंथ की स्थापना की तथा उसके कुछ समय बाद ढू ढक पंथ के साधु रघुनाथ जी के शिष्य भीखन जी ने मूर्तिमान्यता के विरोध के साथ दया और दान को भी अधर्ममान कर तेरापथ मत की स्थापना की ।
इस प्रकार जैनों में विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच में मूर्ति पूजापद्धति के विरोध में दो और मूर्ति मान्यता के विरोध में तीन पंथों की स्थापनाएँ हुई । यदि ये पंथ मूर्तिपूजा को अस्वीकार करके ही चुप रहते तो भी गनीमत होता । पर इन लोगों ने यहाँ तक विरोध खड़ा किया कि 1- जैनागमों में मूर्ति तथा उसकी पूजा के पाठों को तोड़-मरोड़कर अर्थ बदल कर और कुछ आगमों की मान्यता का ही निषेध करके ' यह प्रचार शुरु कर दिया कि तीर्थंकर भगवन्तों ने अपनी वाणी (आगमों) में कहीं भी मूर्तिपूजा का उपदेश नहीं दिया इसलिए मूर्तिपूजा में हिंसा होने से जैन सिद्धान्त का अपलाप मात्र है । मात्र इतना ही नहीं, किया परन्तु इन लोगों ने अपने मत के प्रचार में जैन प्रतिमाओं को मंदिरों से हटाकर अपने साधुत्रों के निवास स्थानों के रूप में परिवर्तित कर डाला । अनेक मन्दिरों, मूर्तियों को क्षति भी पहुचाने में कमी नही रखी । जहाँ-जहाँ श्वेतांबर श्रमण श्रमणियों का आवागमन बन्द हो गया वहां-वहां इन मन्दिरों-प्रतिमाओं के उपासकों को अपने पंथों के अनुयायी बनाकर बचे खुचे मन्दिरों को ताले लगवाकर बन्दकर दिया । ऐसा करने से जैनधर्मं, इसकी संस्कृति को कल्पनातीत आगे प्रसंगानुसार करेंगे ।
क्षति हुई जिसका वर्णन हम
इन लोगों ने आगमों में आये हुए मूर्ति तथा उनकी पूजा के अर्थों को कैसे तोड़-मरोड़ कर विपरीत अर्थ किये हैं । इस पर भी आगे प्रकाश डालेंगे |
1. आक्षेप - मूर्तिपूजा के विरोध में यह दलील दी जाती है कि ईश्वर निराकार है, फोटो, चित्र, मूर्ति, प्रतिबिंब आकृति आदि तो किसी रूपवाले के बन सकते है । परन्तु अरूपी के नहीं बन सकते । यह मूर्ति ईश्वर की भक्ति
5- वर्तमान में श्वेतांबर जैन 45 आगम मानते आ रहे हैं। ढू ढक लुंकामती व तेरापंथी इन में से 13 को छोड़कर 32 मानते हैं । दिगम्बरों ने इस आगम साहित्य का एकदम निषेध ही कर दिया ।
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