Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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पासना में उपयोगी कैसे हो सकती है जब कि इस में अरूपी ईश्वर की स्थापना असंभव है ।
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2. समाधान - जो मत-मतांतर, पंथ-संप्रदाय आदि ईश्वर को मात्र अरूपी ही मानते हैं वे तो निराकार ईश्वर की मूर्ति आदि का निर्माण कर ही कैसे सकते हैं यानी वे कर ही नहीं सकते - यह बात उनकी सत्य है और उन्हीं पर लागू भी होती है । ऐसा होते हुए भी वे सब किसी न किसी रूप में मूर्ति को मानते अवश्य है । उन मूर्तियों को सन्मान और श्रद्धापूर्वक सिर भी झुकाते हैं, उनकी पूजा उपासना भी करते हैं ! उनके नाम पर बड़े-बड़े मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों का निर्माण भी करते हैं । मठों की स्थापनाएँ करके लाखों और करोड़ों के चढ़ावे भी चढ़ाते हैं । उनको प्रसन्न करने के लिए पशु, पक्षी, नर आदि की बलियाँ भी चढ़ाते हैं । मात्र इतना ही नहीं, यदि उनकी मान्य मूर्तियों, मन्दिरों, मस्जिदों चित्रों आदि का कोई अपमान करता है तो उसकी हत्या करने पर भी उतारू हो जाते हैं । ताजिए, पीर पैगम्बरों की कबरों, मस्जिदों, अमामवाड़ों तथा मक्केमदीने के पत्थरों के कण-कण को नतमस्तक होने में महान पुण्य मानते है । यद्यपि ये स्वयं इस बात को मानते हैं कि ये ईश्वर-परमात्मा, खुदा-अल्लाह के प्रतीक नहीं है तो भी इस मान्यता के पीछे आत्म-कल्याणकारक धर्म मान कर चलने में कितनी आत्म वंचना है और कितनी निःसारता है। इसका विवेचन हम पहले कर आये हैं ।
जहाँ तक जैनों का प्रश्न है वे तो तीर्थंकर को ही ईश्वर-परमात्मा मानते हैं और वे सब मानव शरीरधारी ही होते हैं । वे रूपी साकार होते हैं इसलिए वे रूपी और मूर्तिमान थे। उनकी मूर्ति-चित्रादि बनाने संभव होने से उनके उपासकों-देव-दानवों, मनुष्यों, नरेन्द्र-देवेन्द्रों ने उनकी मूर्तियों चित्रों आदि का निर्माण कर-करा कर उनके माध्यम से दर्शन, वन्दन, नमस्कार, पूजा, उपासना, ध्यान आदि द्वारा अपना आत्म-कल्याण करने में सफल हुए और होते हैं ।
अन्त में सशरीरी परमात्मा अर्हत्-देव सर्वं कर्म क्षय करने के बाद शरीर को छोड़कर अरूपी सिद्ध हो जाते हैं पर उनकी अरूपी आत्मा का आकार तो कायम रहता है । जिस शरीर आकृति से वे निर्वाण प्राप्त करते है निर्वाण अवस्था में
रूपी होते हुए भी उनकी आत्मा का आकार उसी शरीर की आकृति में कायम रहता है । इसलिए अरूपी साकार सिद्ध परमात्मा की मूर्ति का निर्माण करके भी सशरीरी तीर्थंकरों तथा अशरीरी साकार सिद्धों की प्रतिमाओं का निर्माण कराकर मन्दिरों, मूर्तियों, गुफाओं, तीर्थों, स्मारकों आदि की स्थापनाएं करके धार्मिक उत्क्रान्ति के प्रेरक, संरक्षक, प्रवर्द्धक और चिरस्थाई रखने में सहायक बने । जो जैनधर्म का गौरव बढ़ाने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए । मात्र इतना ही नहीं स्थानीय सकल श्री जैनसंघ तथा दूर-देशांतरों से आने-जाने वाले तीर्थयात्रियों के
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