Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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सर्वप्रथम आज से चौदह शताब्दियां पहले मुसलमान मत संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब ने अरब देश में मूर्तिपूजा का विशेष प्रारम्भ किया। उनके अनुयायियों ने संख्यातीत मन्दिरों को ध्वंस करके धराशायी किया। तत्पश्चात अन्य देशों पर इन लोगों ने आक्रमण करके अपने पांव जमाकर वो भी संख्यातीत मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, स्मारकों को ध्वंस किया और उन्हीं के पत्थरी आदि से अपनी मस्जिदों, इमामवाड़ों, मकबरों, दरगाहों की स्थापनाएं व निर्माण करके प्रकारांतर से तथ्यहीन जड़-पूजा को स्वीकार किया।
भारत में भी बड़े जोर-शोर से जिन-मन्दिरों, जिन-मूर्तियों, जिन-स्तूपों, जिन. स्मारकों तथा धर्म स्थानों को ध्वंस किया गया और उनको खंडित करके उन्द्रों की ईटों पत्थरों आदि सामग्री से अपनी मस्जिदों, मीनारों आदि का भी किया। उदाहरण रूप से अजमेर में ख्वाजा की दरगाह के पीछे इन्द्रकोट में द्वार का झोंपड़ा नामक मस्जिद को जैनमन्दिर को ही तोड़कर उसी की ध्वंस साकार ढाई-दिनों में निर्माण किया गया तथा दिल्ली की कुतुबमीनार को 24 मन्दिरों को ध्वंस करके नयार किया गया ऐसे अनेक जीते-जागते सबूत हैं।
जैनधर्म में विक्रम संवत् 139 (महावीर प्रभु के 609) वर्ष बाद एकान्त नग्नत्व के सिद्धान्त को लेकर एक नये दिगम्बर पंथ का प्रादुर्भाव हार प्राचीन परम्परा से मूर्तिपूजा पद्धति में कोई मतांतर अथवा भेदभाव नहीं श्वेतांबर-दिगम्बर दोनों नाम्नायों की जिनप्रतिमा तथा उसकी पूजापद्धति विक्षित विधान एकदम समान रूप से चलते रहे।
विक्रम की 15वीं शताब्दी में मुगलसत्ता के पैर जमे तथा विक्रम की 16वीं शताब्दी में जनों के श्वेताम्बर आम्नाय में विक्रम संवत 1531 में श्वेतांबर श्रमणों के साथ विरोध होने पर तथा म सलमानों के प्रभाव से प्रभावित होकर लुका नामक गहस्थ ने मतिपूजा में हिंसा बतलाकर समाज में विरोध और विक्षोभ पैदा किया तथा इसकी पुष्टि के लिये कुछ अन्य सिद्धांतों में विरोध खड़ा करके लुकापंथ की शरुआत की। विक्रम को 18वीं शती (विक्रम संवत 1709) में इसी पंथ के लव जी नाम के एक यति ने जनों में मूर्ति तथा उसकी पूजा का विरोध करके एवं साधु-साधवी चौबीस घंटे एक कपड़े के टुकड़े में डोरा डालकर दोनों कानों में लटकाकर मुंह पर बधना प्रारम्भ कर ढ ढकपंथ की स्थापना की। ये लुकामती लोकागच्छीय स्थानवासी कहलाये और लवजी के अनुयायी ढूढक कहलाये। यह नाम इस मत के प्रवर्तक लवजी ने स्वयं घषित किया था।
लुकामती यति प्रतिमा पूजन, जिनमंदिर निर्माण तो मानते थे परन्त प्रजा में सचित वस्तु के प्रयोग में हिंसा मानकर विरोध करते थे। ढढकपंथी जिन
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