Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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अर्थ- अम्बड़ परिवराजक को न कल्पे अन्य तीर्थी, अन्य तीर्थी को देव को और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए अरिहंतचैत्य (जिनप्रतिमाओं-तीर्थकरदेवोंकी मूर्तिओं) को वन्दना नमस्कार करना परन्तु अरिहंतों और अरिहंतो की प्रतिमाओं को वन्दन-नमस्कार करना कल्पे ।
(आ) श्री स्थानांग सूत्र की नियुक्ति में वर्णन है कि श्रेणिक के पुत्र महामंत्री अभयकुमार द्वारा अनार्य देश के राजकुमार आर्द्र कुमार को भेजी हुई जिनप्रतिमा को देख कर उसे पूर्व जन्म का ज्ञान (जातिस्मरण ज्ञान) हो गया और प्रतिबोध पाकर जैनधर्मी बना एवं जब तक उसने मुनि दीक्षा ग्रहण नहीं की तब तक उस प्रतिमा की भक्ति-पूजा करता रहा ।
5- साधु साध्वी और जिनप्रतिमा
प्रश्नव्याकरण सूत्र के तीसरे संवर द्वार में साधु को 15 बोलों की वेयावच्च करने का कहा हैं । उनमें पंद्रहवां बोल जिनप्रतिमा का है।
प्रह केरिसए पण पाराहए वयामिण ? जे से उवही भत्त-पाणे संगदाग कुसले 1. अच्चत्तं बाल, 2. दुब्बल. 3. गिलाग, 4. बुड ढ, 5. खवगे, 6. पवत्त, 7. आयरिय, 8, उज्झाए, 9. सीसे, 10. साहम्मिए, 11. तवस्सी, 12. कुल, 13. गण, 14. संघ, 15. चेइय? निज्जरट्ठी, वयावच्चे अफिस्सियं दसविह, बहुविह परेइ"
___ अर्थ-- (शिष्य पूछता है) हे भगवन् । कौन सा साधु (तीसरे अदत्तादान विरमण प्रचौर्य) व्रत का आराधन करता है ? (गुरु कहते हैं) जो साधु उपकरण, आहार-पानी, यथोक्त (शास्त्रोक्त) विधि से लेने में और यथोक्त (शास्त्रोक्त) विधि से आचार्यादि को देने में कुशल है वह (साधु तीसरे व्रत का आराधन करता है। 1-अत्यन्त बालक, 2-शक्तिहीन दुर्बल, 3-रोगी, 4-वृद्ध, 5-क्षपक, 6-प्रवर्तक, 7.आचार्य, 8-उपाध्याय, 9 नवदीक्षिा शिष्य, 10-सार्मिक, 11-तपस्वी, 1 :-कुल (चन्द्र कुलादि) 13-गण, (कुलों का समुदाय) 14-संघ (गणों और कुलों का समुदाय) 15-चैत्यों (अरिहंतों की मूर्तियों-मन्दिरों) की निर्जरा-कर्मक्षय की इच्छा वाला साधु-साध्वी मानादि की अपेक्षा रहित से, बहुत प्रकार की वेयावच्च (सेवा श्रूषा) करता है वह साधु-साध्वी तीसरे व्रत का आराधक है (प्रश्नव्याकरण सूत्र)
6. श्रावक अथवा साधु जिन मंदिर न जावे तो प्रायश्चितश्री महाकल्पसूत्र से कहा है कि
से भयवं तहारूवं समणं वा माहणं वा चेइएघरे गच्छेज्जा ? हँता गोयमा ! दिणे दिणे गच्छेज्जा । से भय ! दिणे न गच्छेज्जा तपो कि पार्याच्छत्त हवेज्जा? गोयमा ! पमायं पड च्च तहारूवं समर्ग वा माहणं या जो जिणधरे न गच्छेज्जा तो
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