Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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भावना पूर्वक सर्वादर सहित श्री जिनदेवों की प्रतिमाओं की पूजा करनी चाहिये । क्योंकि यह संसार रूप समुद्र को पार करने के लिये परम नौका रूप है ।
3. श्री हरिभद्र सूरि ललितविस्तरा टीका में लिखते है कि.
पुष्प, नैवेद्य, स्तोत्र, प्रतिपत्ति (आत्म समर्पण) इन चार प्रकार की पूजाओं में यथोत्तर एक दूसरी का प्राधान्य हैं । देशविरित श्रावक को चारों प्रकार की पूजा M करना चाहिए और सरागसंयमी सर्वविरत ( पाँच महाव्रतधारी) साधु को स्तोत्र और प्रतिपत्ति नामक पूजाएं करना उचित है ।
प्रतिमापूजन में संघट्टा
मूर्तिपूजा विरोधी एक तर्क यह भी करते हैं कि जिनेन्द्रदेव ने कहा हैं कि नर-मादा के परस्पर स्पर्श करने से चौथे ब्रह्मचर्य व्रत का मंग होता है । ऐसे स्पर्श को आगम की भाषा में संघट्टा कहते हैं । इसलिए जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के पूजन में स्त्रियों के स्पर्श होने से संघट्टा लगता है इसलिये प्रतिमा के पूजन से चौथे व्रत का भंग होता है । ( तेरापंथी जयाचार्य )
समाधान - सचेतन जीवित और मूर्ति-फोटो- चित्रादि में अन्तर है । सचेतन जीवित व्यक्ति ज्ञानादि उपयोगवान है और मुनि आदि चेतना रहित होने से उपयोग रहित है। जैनागमों में नर-मादा के संघट्ट का निषेध सदाचार-ब्रह्मचर्यादि की रक्षा के लिए किया गया है । क्योंकि कामविकार, राग-द्वेष, प्रमाद, अज्ञान, स्खलना आदि छद्मस्थ जीवित प्राणी में ही संभव है । चेतनारहित में अथवा मोहनीय आदि चार घाती कर्म रहित वीतराग सर्वज्ञ जीवित सचेतन तीर्थंकर - जिनेन्द्र में ऐसा संभव ही नहीं है । जीवित जिनेन्द्र से संघट्टे का निषेध व्यवहार नय से इसलिए किया गया है कि इसकी ओट में छद्मस्थ श्रमण-श्रमणियां सजीव संघट्टे को निर्दोष न मानलें । परन्तु मुर्तिचित्रादि के स्पर्श से यह दोष संभव नहीं । इसलिए प्रतिमाके स्पर्श से स्त्री तथा पुरुष को संघट्टे का दोष नहीं लगता ।
यदि मुर्तिपुजा के विरोधी संघट्टा मानते हैं तो इन पन्थों के आचार्य, साधु .. साध्वियां, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियाँ आदि भी नर-मादा मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों के चित्रों आदि वाले ग्रन्थो, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हैं, उन चित्रो को देखते भी हैं स्पर्श भी करते हैं । तब उसका संघट्टा क्यो नहीं मानते ? उन की मान्यता के अनुसार उनके चौथे ब्रह्मचर्य व्रत का मंग क्यो नहीं मानते ? इसलिए उनके इस आचरण से हो सिद्ध है कि मुर्ति चित्रादि की संघट्टा मान्यता एकदम निराधार है । 10. जैनेतर साहित्य और जिनप्रतिमा
1- आर्यसमाज मत प्रर्वतक स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना है कि विश्क
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