Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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दर्शन होना मान लेते हैं । किन्तु वास्तव में भगवान के साक्षात दर्शन तो उनकी आत्मा तथा आत्मिक गुणों का है शरीर का नहीं। जिस प्रकार उनके शरीर को देखकर उसके -अन्दर रही हुई आत्मा और उन के आध्यात्मिक गुणों के दर्शन करना अपनी कल्पना से मान लेते हैं उसी प्रकार तीर्थ कर तथा सिद्ध की मूर्ति को देखकर उस मूर्ति वाले परमात्मा की कल्पना की जाती है तथा साक्षात् तीर्थंकर तथा सिद्ध के समान ही उन की मूर्ति से उनके दर्शन हो जाते हैं ।
मान लीजिये अभी कुछ मूर्तियां - बुद्ध, राम, कृष्ण, हनुमान, महादेव, तीर्थकर, विष्णु, ब्रह्मा, महेश, दुर्गा, भवानी, प्रताप, शिवाजी, चोर, डाकु, स्त्रीलम्पट, - वेश्या आदि की लाकर आपके सामने रखदी जावें तो उन्हें देखकर आप क्या कहेंगे । जिस मूर्ति का जैसा आकार और नाम होगा उस का वैसा ही नाम लेंगे और जिसे आप पूज्यदृष्टि से देखते हैं, उस के सामने भावविभोर होकर झट नतमस्तक हो जायेंगे तथा जिस से आप घृणा करते हैं उस की तरफ से मुंह फेर लेंगे और निन्दा के दो चार शब्द बोल ही बैठेंगे ।
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इस से स्पष्ट है कि मूर्ति से मर्तिवाला याद आता है । यदि मर्तिवाले का ज्ञान न हो तो आप नहीं कह सकते कि यह मूर्ति किसकी है ।
ज्यों ही आप सुदर्शन चक्रधारी बंसी सहित मूर्ति को देखते हो तो झट कह देते हो कि यह श्री कृष्ण है । जिस मूर्ति के हाथ में धनुषबाण देखने में आता है तो पहचान जाते है कि यह श्री राम हैं । पद्मासन अथवा खड़ी ध्यानावस्था में नासाग्र -दृष्टि से प्रशांत रस- निमग्न मूर्ति को देखते ही पहचान जाते हैं कि यह तीर्थ कर परमात्मा हैं । यदि मूर्ति पर जनऊ आदि का आकार हो तो जिसे ज्ञान होगा वह झट कह देगा कि यह गौतम बुद्ध हैं । इसी प्रकार अन्य मतियों के लिये भी यही बात है ।
मूर्ति मानने वाले जड़ मूर्ति को नमस्कार या उसका पूजन नहीं करते, पर वे उस मूर्ति द्वारा मतिवाले का पूजन, वन्दन, नमस्कार करते हैं। जब तीर्थ कर सशरीर विद्यमान होते हैं तब भी उनके शरीर का पूजन नहीं होता पर उनके शरीर के माध्यम से उन के पवित्र आत्मिक गुणों की पूजा की जाती है ।
जैनों में 2- आक्षेप - जैनों में इसका कहीं उल्लेख नहीं है । के लिये प्रचलन किया है ।
मुर्तिपूजा की मान्यता कब से ?
मूर्तिपूजा प्राचीन नहीं, अर्वाचीन है क्योंकि आगमों में यह तो पीछे के शिथिलाचारी यतियों ने अपने निर्वाह
समाधान- - हम लिख आये हैं कि जब से विश्व है तभी से जैनधर्म है तथा तभी से उनकी मूर्ति की मान्यता भी है ।
तभी से तीर्थकर भी होते आये हैं, जैनागमों में स्पष्ट उल्लेख है कि
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