Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
57
आदि स्थानों पर पावापुरी (विहार प्रदेश) में निर्वाण मदिर तथा जल में मदिर का उनके भाई नन्दीवर्धन ने निर्माण कराकर तीर्थों की स्थापनाएं की।
9. इसी प्रकार सभी तीर्थ करों के समय में भी उनकी अमुक-अमक घटनाओं के स्थानों पर उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की मूर्तियों का निर्माण कराकर मंदिरों और तीर्थों की स्थापनाएं होती रही ?
इन सब का आगमों में उल्लेख पाया जाता है और इन आगमों की सत्यता के प्रमाण रूप आज भी सम्मेतशिखर, पावापुरी आदि तीर्थों में विद्यमान मंदिर आदि प्रत्यक्ष देखने में आ रहे हैं ।
ये तीर्थ आज भी उस प्राचीन इतिहास के मुह बोलते प्रतीक हैं । इन सब तीर्थस्थानों का दर्शन पाते ही म म क्षु आत्माओं का मनमोर नाच उठता है और हाथ उनके चरण स्पर्श करने के लिये, पूजा करने के लिये विह्वल हो उठते हैं । अनायास श्रद्धा और भक्ति से सिर झुक जाता है। उनके गुणों का स्मरण होते ही मुख से बरबस उनके अलौकिक गुणों का कीर्तन होने लगता है और उनके विश्व पर किये हुए उपकारों को याद करके हर्ष और उल्लास से सारे शरीर में रोमांच हो जाता है, प्रसन्नता से गद्गद् होकर शरीर मस्ती से झूमने लगता है और चरण नत्य करने के लिये विवश हो जाते हैं । नेत्र दर्शनों केलिये ललचा उठते हैं । एक अजीब सा समा बन्ध जाता है । इन स्थानों पर पहुंच कर उपासक मंत्रमुग्ध होकर एक अलौकिक आनन्द का अनुभव करने लगता है। यह तो हुई इन पवित्र तीर्थों की बात । जहां का कण-कण उन महापुरुषों की चरणरज से पवित्रता प्राप्त किए हुए है।
18. इसके अतिरिक्त आगमों में भक्त जनों द्वारा जिनप्रतिमाओं तथा मन्दिरों के निर्माण के अनेक उल्लेख मिलते हैं। वे अपने-अपने नगरों में, गिरि-गुफाओं में अपने द्वारा और अनगार श्रम ग-श्रमणियों के द्वारा उपासना के लिये, आराधना, साधना, ध्यानादि के लिए जिनप्रतिमाओं का निर्माण तथा उनको मन्दिरों आदि में स्थापित कर मन्दिरों और तीर्थों की स्थापना पुरातन काल से ही करते चले आ रहे हैं । जीर्ण-शीर्ण धर्मायतनों का जीर्णोद्धार आदि कर-करवा कर उनके खर्चे के निर्वाह के लिये भूमिदानादि भी करते रहे हैं।
___ अष्टापद तीर्थ पर सिंहनिषद्या मन्दिर की यात्रा कर लंकापति रावण ने तीर्थंकर नाम कर्म का बन्धन किया था अर्थात् तीर्थ करत्व प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त की। इसी तीर्थ की यात्रा कर महावीर प्रभु के प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम ने 1503 तापसों को निग्रंथ श्रमण की दीक्षाएं दीं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त कराने में सहयोगी बने तथा अन्त में वे सब निर्वाण पाये । स्वयं भी यहां की यात्रा करके आत्मकल्याण किया ।
11. जिन प्रतिमा की उपासना या मूर्तिपूजा के आगमों के प्रमाण तथा उन्हें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org