Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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( आ ) द्वेषवश सत्य को असत्य, शुद्ध को अशुद्ध, भले को बुरा कहेगा : 3 - जो व्यक्ति रागी -द्वेषी और अज्ञानी भी है अर्थात् न तो जिस को शुद्ध -ज्ञान है और न समता ही है, वह भी तत्त्व के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान सकता और न ही कह पायेगा । ऐसे व्यक्ति का कथन भी सत्य से बहुत परे है । अतः वीतराग ( राग-द्वेषरहित ) सर्वज्ञ (शुद्ध ज्ञानवान ) व्यक्ति ही तत्त्व के स्वरूप को ठीक-ठीक जानता है और जैसा जानता है वैसा कहता भी है और वैसा ही आचरण में लाता भी है । अतः यह स्पष्ट है कि वीतराग सर्वज्ञ द्वारा जाना हुआ, कहा हुआ वचन ही सत्य है । इसीलिये वह सम्यग्ज्ञान है और ऐसा ज्ञानवान वीतराग - सर्वज्ञ- तीर्थ कर परमात्मा (अहं) के सिवाय अन्य कोई हो ही नहीं सकता ।
इसीलिए तो 1444 ग्रन्थों के रचयता महत्तरा सुनु आचार्य श्री हरिभद्र सूरि फरमाते हैं कि
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पक्षपातो न मे बीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ 1 ॥
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अर्थात् मुझे न तो महावीर तीर्थंकर से कोई पक्षपात है और न कपिलादि अन्य - दार्शनियों से द्वेष है । क्योंकि वीतराग - सर्वदर्शी - सर्वज्ञ श्री महावीर ( वर्धमान ) का वचन युक्ति पुरस्सर सत्य है, इसी लिए मैंने उनके शासन ( धर्म - मार्ग) को स्वीकार किया है।
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