Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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अर्हत् तीर्थ कर की आयु जब समाप्त हो जाती है तब वे इससे पहले ही बाकी के नाम आदि चार आघाती कर्मों को भी पूर्ण रूप से क्षय करके (सब धाती-अपाती आठों कर्मों को समपूर्ण रूप से क्षय करके) सिद्धावस्था प्राप्त कर लेते हैं और जन्म-जरा-म त्यु के चक्र से सर्वदा के लिए छुटकारा पाकर अपने शुद्ध स्वरूप में निरंजन मरूपी साकार अवस्था में लोक के अग्रभाग पर चैतन्य रूप में सदा कायम रहते हैं। यह अरूपी ईश्वर सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं । ये मनुष्य रूप में माता के गर्म से पैदा होकर अपने आत्म पुरुषार्थ के बल से परमात्मावस्था प्राप्त करते हैं। ये न तो ईश्वर के अवतार होते हैं और न पैदा होते ही ईश्वर होते हैं। सामान्य स्थिति का संसारी जीव अनेक जन्मों की साधना से अपने आत्म पुरुषार्थ के बल पर ही आत्मा से परमात्मा बनता है । संसारी जीव कम करने में स्वतन्त्र है और कर्म का फल स्वयमेव भोगने में भी स्वतंत्र है । यह दर्शन न तो ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानता है, न अवतार लेना और न कम फल दाता मानता है । इस प्रकार जनविचार सशरीरी शरीरधारी) ईश्वर को अर्हत्, जिन, अरिहंत अरूहंत, अरहत, परमात्मा, तीर्थ कर, निग्रंथ मानता है तथा अशरीरी अवस्था में सिद्ध परमाता का अरूपी साकार ईश्वर के रूप में अस्तित्व मानता है।
जो प्राणी तीर्थंकरों के बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण कर केवलज्ञान पा लेते हैं वे सामान्य केवली कहलाते हैं वे भी अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेते हैं । तीर्थकर
और सामन्य केवली में सिद्ध अवस्था में कोई भेद नहीं रहता। व्यक्ति रूप से भिन्न रहते हुए भी शुद्ध-स्वरूप परमात्मा पद की अपेक्षा से सर्वथा अभेद है अर्थात् सिद्धावस्था में तीनों बराबर हैं। पूर्व के सिद्ध परमात्माओं तथा कर्म क्षय करके सिद्ध अवस्था प्राप्त करने वाली आत्माओं में स्वभाव, गुण तथा दर्जे में कोई अन्तर नहीं है । वेद धर्मानुयायी तथा उन का अनुकरण करने वाले आर्यसमाजी, सिख, मुसलमान, राधास्वामीपंथी, ब्रह्माद्वैतवादी, ईसाई, यहदी, पारसी आदि अनेक मतानुयायी जिसे एक काल्पनिक, अरूपी, सर्वव्यापक, सष्टिकर्ता आदि गुणयुक्त ईश्वर मानते हैं ऐसे ईश्वर का अस्तित्व जैन और बौद्ध नहीं मानते है । जैनदर्शन की मान्यता है कि सष्टि (संसार) किसी के द्वारा निर्मित नही है । अनादिकाल से यह स्वतः विद्यमान है और अनन्तकाल तक स्वतः विद्यमान रहेगा। इस अनादि अनन्त सृष्टि में पर्याय से परिवर्तन होते हैं । परन्तु मूलरूप से सृष्टि कायम रहते हुए भी इस में परिवर्तन होते है। अतः सष्टि न एकान्त नित्य है न एकान्त अनित्य है किन्तु नित्यानित्य है।
ईश्वर का यथार्थ स्वरूप एवं शाश्वत सुख प्राप्ति (1-2) पहला तथा दसरा वर्ग-जिस किसी अरूपी सर्वव्यापक ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं। ऐसे ईश्वर को न तो किसी न देखा है और न कभी उसे
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