Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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जिस व्यक्ति को जैसे गुणों को प्राप्त करने की इच्छा होती है उसे वैसे ही आदर्श के आलम्बन की आवश्यकता रहती है । जैसे क्षत्रियोचित वीरता पाने के लिए, युद्ध में शत्रुओं को जीतने के लिए, देश की तथा परिवार की रक्षा के लिए चक्रवर्ती राजा, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, नेपोलियन, किंगब्रूसो आदि युद्धवीरों के आदर्श की आवश्यकता रहती है। कामी पुरुषों को कामशास्त्र- कोकशास्त्र आदि के अध्ययन की आवश्यता है । वैश्योचित व्यापारादि में योग्यता और उत्कर्ष प्राप्त करने के लिए टाटा, बाटा, मोदी आदि से कुछ सीखने की आवश्यकता है । ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः अर्थात् जो ब्रह्म (परमात्मा) को जानता है वह ब्राह्मण है । जो आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जानकर मोक्षाभिलाषी है और स्वयं तथा विश्व के प्राणियों को आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने कराने का अभिलाषी हे उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र का तथा अहिंसा, अनेकान्तवाद एवं अपरिग्रह का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है । इस के लिए अर्हतों (तीर्थं करों) द्वारा प्ररूपित सम्यग् तत्त्वज्ञान, उस पर पूर्ण सम्यग् श्रद्धा एवं सम्यक् शुद्ध प्राचरण की परमावश्यकता है। इस के लिए जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदेशित जैनागमों (शास्त्रों) के अभ्यास-स्वाध्याय से ज्ञानाजन करना तथा तदानुकूल चारित्र ग्रहण करना हैं । वीतराग सर्वज्ञदेव, पंचमहाव्रतधारी गुरु तथा सद्धर्म की वन्दना, सेवा, पूजा आराधना का संबल उपासक के लिए परमावश्यक हैं । हम लिख आये हैं कि अर्हत् तीर्थंकर में ही ईश्वर परमात्मा के वास्तविक गुण हैं । वीतराग सर्वज्ञ होने से उन्हीं का बतलाया हुआ धर्ममार्ग सम्यग् धर्म है । ऐसे धर्म का पालन करने से ही विश्व के प्राणि मात्र को आध्यात्मिक व आधिभौतिक शांति प्राप्त हो सकती हैं। इसी के प्रचार-प्रसार और आचरण से अन्तर्द्वद्व तथा बाह्यद्वन्द्वों से छुटकारा मिल सकता है जिन ( तीर्थ कर) के द्वारा बतलाया हुआ धर्म जैनधर्म कहलाता है और इसका पालन करने वाले जैन कहलाते हैं इस धर्म का पालन करने से सच्चा ब्राह्मणत्व- जेनत्व प्राप्त हो सकता है और विश्व में शांति का बोलबाला - संभव हो सकता है । जो मुमुक्षु मोक्ष प्राप्त करने का अभिलाषी हैं वही वास्तविक जैन है । अत: आत्मा और विश्व कल्याण केलिए चिरस्थाई शांति पाने के लिए वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवों, इन्द्रभूति-गौतम सुधर्मा आदि जेसे निग्रंथ गणधरों ( मुनिवरों, सद्गुरुओं) तथा जिनेश्वर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित जैनागमों (द्वादशांगवाणी) का सेवन करने की परमावश्यकता है । इसका एक मात्र आदर्श तीर्थंकर प्रभु की भक्ति, उपासना, वन्दना, पूजा, स्तुति ध्यानादि; निग्रंथ मुनियों सुगुरुओं का सानिध्य, उनके द्वारा सदागमों के प्रवचनों का श्रवण, तथा स्वाध्याय - निदध्यासन एव आगमानुकूल धर्म का आचरण करना; आराध्य की अविद्यमानता में उनके प्रति आदर का परिणाम होने के लिए स्थिर और सुदृढ़ भक्ति की जरूरत है । भक्ति की ऐसी स्थिरता सुदृढ़ता आराधक को अत्यन्त शुभ फल को देने वाली हैं । इस में लेशमात्र भी विवाद को अवकाश नहीं हैं ।
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