Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
36
इन महापुरुषों के अभाव में उनकी मूर्ति-प्रतिमा से ही उनके साक्षात् दर्शन संभव हैं तथा उनके उपदेशों तथा चरित्रों का जिनमें संकलन है ऐसे सद्-आगम (शास्त्र-समूह) ही उनके सिद्धान्त और आचार का बोध करा सकते हैं। कहने का आशय यह है कि तीर्थ कर भगवन्तों की प्रतिमा, उनके संघ में निर्गय जैन श्रमण. श्रमणियां एवं उन के द्वारा कथित जैनागम ये तीनों ही इस काल में आत्म-कल्याण की साधना के लिये परम-उपयोगी साधन है। इन तीनों के सद्भाव तथा सम्पर्क से ही मुमुक्षु आत्माएं परम-कल्याणकारी ध्येय को पा सकती हैं।
दूसरी बात यह है किसी भी आराधना के लिए चित्त की एकाग्रता, स्थिरता और निर्मलता की परमावश्यकता है। उसके बिना कार्य की सफलता सम्भव नहीं। आत्म-स्वरूप के चिन्तन तथा उसे कर्मों के बन्धन से मुक्त कराने के लिए ध्यान और कायोत्सर्ग की नितान्त आवश्यकता है । चित्त की निर्मलता, स्थिरता, एकाग्रता के बिना ध्यान संभव नहीं है। ध्यान की एकाग्रता से ही ध्याता-ध्येय को पा सकता है। किसी भी कार्य की सफलता के लिये गम्भीर चिंतन की जरूरत रहती है। यहाँ तो आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझकर उसे प्राप्त करने का ध्याता का ध्येय है। ऐसी अवस्था प्राप्त करने के लिए ऐसे महापुरुषों का बाह्य और आभ्यन्तर स्वरूप एवं उनके चारित्र की भी जानकारी परमावश्यक है। जिसके आदर्श को सामने रखकर आत्म-स्वरूप को साक्षात् करके घातिकर्मों को क्षय करने में सफलता मिल जावे। ऐसा होने से ही वीतरागता, केवलदर्शन, केवलज्ञान पाने का सौभाग्य मिल सकता है। ऐसा आदर्श ध्यान साक्षात् तीर्थकर अथवा उनकी प्रतिमा के सिवाय अन्य किसी में नहीं पाया जाता। वर्तमान में तीर्थ कर के न होने से मात्र उनकी पद्मासना सीन अथवा खडगासनासीन प्रतिमा (जिनप्रतिमा) के दर्शन पूजन से ही साक्षात्कार हो सकता है। कहने का आशय यह है कि ध्याता को ध्यान में जिस ध्येय की प्राप्ति का लक्ष्य होता है उसी के अनुरूप आदर्शवाली आकृति, उनका सिद्धांत और चरित्र ही साधक के सन्मुख होने चाहिए। हमारा ध्येय आत्म-कल्याण का है, कर्म-बन्धन से मुक्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पाकर शाश्वत सुख रूप मोक्षपद प्राप्ति का हैं। इस अवस्था को पाने के लिए तीर्थ कर भगवन्तों की प्रतिमा भी एक अनिवार्य साधन है।
जैनधर्म की मान्यता है कि विश्व अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक विद्यमान रहेगा। मानव भी अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। इस पृथ्वीतल पर जब से मानव है तभी से उसका आचरण भी है। जबसे आचरण है तब से उसे परिष्कृत करने का लक्ष्य तथा उसके साधन भी हैं । वे उपाय और साधन बाह्य भी हैं आभ्यान्तर भी है। आचरण के परिष्कार से ही मानव मानवता को पाता है । मानवता ही विश्व में चिरस्थाई शांति स्थापित कर सकती है। आचरण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org