Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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कृपा से आर्हत- जैनधर्म का दीपक जगमगा रहा है। समुद्रपार जहां आज जैन निग्रंथ श्रमण श्रमणियों की पहुंच नहीं, वहां भी हमारे मंदिर-मूर्तियां ही वहां के लोगों की धर्मदृढ़ता के साधन रहे हैं । इन्ही की बदौलत हमें जैन होने का गौरव है ! धर्म को कायम रखने के लिए वर्तमान में तीन मुख्य साधन है । 1. साधु साध्वी श्रमण संघ 2. धर्मशास्त्र तथा 3. जिनप्रतिमा, मंदिर, तीर्थादि । 1. धर्मग्रंथ तो पढ़ेलिखे लोगों की रुचि, ज्ञान और अवकाश की वस्तु है । 2. धर्मगुरु सदाकाल एक जगह नहीं रह पाते, सदा सर्वत्र पहुंच भी नहीं पाते। दुर्गम घाटियों में, बड़ी-बड़ी नदियों और समुद्रपार दूर देशांतरों में जाना, पहुचना तो इन केलिये असंभव ही है । 3. जहां शास्त्रों के वचने पढ़ने वाले ज्ञाता विद्वान नहीं है, जहां साधु-साध्वियों का आवागमन नहीं है, वहां केवल इन्हीं मंदिरों, मूर्तियों, तीर्थों की कृपा से ही जैनधर्म की रक्षा हुई है । ये मंदिर आदि तो पढ़े लिखों अनपढ़ों, विद्वानों, बुद्धिमानों, अल्पज्ञों मूखों, गरीबों, धनियों, बच्चों-बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों सबके लिये भक्ति उपासना और देव, गुरु, धर्म के स्वरूप को जानने का सहज साधन तथा उनकी धर्माराधना में प्रेरणादायक हैं । मात्र इतना ही नहीं किन्तु उनके बाप-दादा आदि पूर्वज किस धर्म के अनुयायी थे उसकी याद तथा ज्ञान केलिये भी अचूक साधन और प्रत्यक्ष प्रमाण है । ये पुण्योपार्जन, अनन्त शाश्वत सुख प्राप्ति अथवा मोक्ष प्राप्ति के अमोघ साधन हैं। मनुष्य भव एक तरफ विवेकी बनने में अत्यन्त महत्वपूर्ण है तो दूसरी तरफ अविवेकी बनकर खतरनाक भी है। ऐसी स्थिति में देव, गुरु, शास्त्र के संबल से मानव को विवेकी, धर्मशील बनाकर मोक्षमार्गी बना सकते है। जैन समाज का गौरव है कि इसके पूर्वजों ने अपने सब तीर्थकरों के गर्भ जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, मोक्ष प्राप्त करने वाले सब स्थानों पर मंदिरों का निर्माण करके तीर्थों की स्थापनाएं कर अक्षुन्न रूप से सुरक्षित रखा है । जो अन्य किसी भी धर्म-संप्रदाय ने अपने माने हुए महापुरुषों के ऐसे स्थानों को सुरक्षित नहीं रख पाये । अतः उन्हें पता ही नहीं कि उनके असली स्थान कहां हैं । जिन पंथों, मतों, संप्रदायों ने अपने आप को जैन मानते हुए भी जिनप्रतिमा की मान्यता, उपासना का निषेध किया है अथवा जैन जैनेतर समाज ने मूर्तिपूजा के विरोध के प्रचार से जैनधर्म की संस्कृति, धर्मं श्रद्धा, कला, इतिहास आदि को धक्का पहुंचाया है, ऐसे लोगों को सद्बुद्धि प्राप्त हो, इस बात को लक्ष्य में रखते हुए उनकी भ्रांत मान्यताओं के समाधान के लिए यहाँ पर प्रकाश डालना परमागश्यक है । जिससे भटके हुए सरल स्वभावी, सत्याभिलाषी, विवेकी मुमुक्षुजन विवेक पूर्ण गंभीरता से मनन तथा चिन्तन करके सोचेंगे, समझेंगे तो उन्हें अपने तथा अपने पूर्वजों पर इस दुष्कृत के लिए अवश्य पश्चाताप होगा और वे विवेकी विचारक सत. पथ-गामी बनकर जिनप्रतिमा पूजन को स्वीकार करेंगे तथा उनके संरक्षण, प्रवर्धन आदि में निष्ठावान बनकर सदा अग्रसर होकर अपना और अपने सहयोगियों का आत्मकल्याण करने में कृतसंकल्प बनेंगे ।
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