Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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को सम्पूर्ण परिष्कृत कर लेने पर ही आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पा सकता है । ऐसे आचरण और साधनों को ही धर्म की संज्ञा दी हैं । इस धर्म का आचरण करने वाले भी अनादिकाल से हैं । धर्म के आचरण से केवलज्ञान पाकर सर्वज्ञ तीर्थं कर भी अनादिकाल से हैं । इसी धर्म के आचरण से सब कर्मबन्धनों से छुटकारा पाकर मोक्ष पाने वाले सिद्ध परमात्मा भी अनादिकाल से हैं । शरीरधारी तीर्थ कर अनादि काल से होने से रूपी ईश्वर भी अनादिकाल से हैं । तो उनके उपासक भी अनादि काल से हैं । यदि उपासक अनदिकाल से है तो उपासकों की उपासना के लिये तीर्थंकरों और सिद्धों की प्रतिमायें भी अनादिकाल से हैं । यदि प्रतिमायें अनादिकाल से हैं तो उन्हें स्थापित करने के लिए जिनमंदिर भी विश्व में अनादिकाल से हैं । उन तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, क्रीडा-स्थली, दीक्षा, तप, विहार, ध्यान, केवलज्ञान स्थान, समवसरण, निर्वाणस्थान भी अनादिकाल से हैं । अत: जैनधर्म भी अनादिकाल से हैं । इसी प्रकार विश्व अनन्तकाल तक विद्यमान रहेगा तो जैनधर्मं, जिन मन्दिर, जैनतीर्थ भी अनन्तकाल तक विद्यमान रहेंगे इसमें संदेह नहीं है । हीं स्थान समय-समय पर परिवर्तित होते रहते हैं । प्रतिमाएँ, मंदिर, तीर्थस्थल भी ध्वंस और नवनिर्मित होते रहते हैं । जैसे कि प्रत्येक तीर्थंकर के कल्याणक स्थल अलगअलग हैं | अनेक आततायियों ने, धर्म द्वेषियों ने, प्राकृतिक प्रकोपों ने प्राचीन मंदिरों मूर्तियों, तीर्थस्थलों को नष्ट-भ्रष्ट ध्वंस किया, साथ ही साथ अनेक उपासकों द्वारा जिनप्रतिमाओं, मंदिरों, तीर्थों का निर्माण तथा स्थापनाएँ भी निरन्तर चालू रहते आ रहे हैं । इसलिये ये सब वस्तुएँ अनादि और अनन्तकालीन है । इन मन्दिरों, प्रतिमाओं, तीर्थों की पूजा, उपासना भी भगत लोग सदा करते आ रहे हैं । अतः अनादिकाल से जिन प्रतिमाओं का आर्हत - ( जैन ) लोग निर्माण, स्थापन, प्रतिष्ठा तथा पूजन करते चले आ रहे हैं। यह निःसन्देह है ।
मोक्ष प्राप्ति औौर जिन प्रतिमा
प्रतिमा ध्यान की एकाग्रता के लिए मुख्य साधन है । साक्षात् तीर्थंकर किसी साधक के लिए बन्धे हुए नहीं है कि वे उसके साधनकाल तक उसके सामने स्थिर रूप से उपस्थित रहें । जिससे यह उनकी आकृति पर अपनी दृष्टि और ध्यान को स्थिर बनाये रखे । उनके उपासक तो लाखों करोड़ों की संख्या में होते हैं और वे अपने-अपने निवास स्थानों पर अलग-अलग मकानों, स्थानों, मुहल्लों, ग्रामों, नगरों, देशों आदि में रहते हैं : अपने जीवित काल में, एक समय में, एक क्षेत्र में एक तीर्थंकर उपस्थित होते हैं । हर समय सब उपासकों के सामने सब स्थानों में वे विद्यमान रहें. यह कदापि संभव नहीं है । अतः तीर्थंकर की जीवित अवस्था अथवा निर्वाण पा जाने क बाद भी उनकी अविद्यमानता में साधक को अपनी उपासना के लिए तीर्थकर प्रभु की प्रतिमा, चित्र, फोटो आदि का आलंबन परमावश्यक है । क्योंकि प्रमत्तक्ष के लिए तीर्थंकर प्रतिमा ही ध्यान तथा कायोत्सर्ग में एकाग्रता के लिए मुख्य
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