Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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ग्रहण किया जाता है । इस दिन शत्र -मित्र आदि सभी से क्षमा याचना की जाती है । इस दिन जैन साधक का उद्घोष होता है-मैं सव जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ और सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करें, मेरी सभी प्राणी वर्ग से मित्रता है और किसी से कोई वैर-विरोध नहीं है। इन पर्व के दिनों में अहिंसा का पालन करना और करवाना भी एक प्रमुख कार्य होता है। प्राचीन काल में अनेक जैनाचार्यों ने अपने प्रभाव से शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त अष्टान्हिका पर्व, श्र तपंचमी, तथा तीर्य करों के च्यवन (गर्भ प्रवेश), जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में भी सामान्यतया उपवास आदि तप किया जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजाएं की जाती हैं । दीपावली का पर्व भी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
जैन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण
यह सत्य है कि जैन धर्म (मुख्य रूप से) सन्यासमार्गी धर्म है। इसकी साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोक-मंगल या लोक-कल्याण का कोई स्थान नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए ! महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि साढ़े बारह वर्षों तक एकाकी साधना करने के बाद वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विधसंघ साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका की स्थापना की तथा जीवन भर उस का मार्ग दर्शन करते रहे । जैन धर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, जेब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुघर सकता। जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शांति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें-यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धांत है । चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होंगे । व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं । क्या चोर, डाकू, हत्यारों और शोषकों का समाज, समाज कहलाने
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