Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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13 . में महावीर कहते हैं कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार हो यदि उस का आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत कर्मों के कारण दुःखी ही होगा । 27 उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । दुराचरण में अनुरक्त अपने आपको पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही हैं। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं 128 आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया है । आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरण-विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है. या अकेला अंधा अथया अकेला पंगु इच्छित स्थान पर नहीं पहुंचते । वैसे ही मात्र क्रिया या मात्र ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है।
जैन पर्वो की अध्यात्मिक प्रकृति
न केवल जैन साधना पद्धति की प्रकृति ही अध्यात्मवादी है अपितु जैन पर्व भी मूलतः अध्यात्मवादी ही हैं । जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्मसाधना और तप साधना के लिए होते हैं। उनमें मूलतः तप, त्याग, व्रत, एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध पर्वो में श्वेताम्बर परम्परा में पर्यषण पर्व और दिगम्बर परम्परा में दस लक्षण पर्व है । जो भाद्रपद में मनाये जाते हैं । इन दिनों में जिन मन्दिरों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास, (पौषध, षडावश्यक) आदि तथा धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय, श्रवण यहो साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्वो के दिनों में जहां दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्यादि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है, वहाँ श्वेतांवर परम्परा में इन दिनों प्रतिक्रमण षडावश्यक (सामायिक, चतुर्विशितस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्थान) रूप में आत्म पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेतांबर परम्परा का अन्तिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर-विरोध के लिए आत्म पर्यावलोचन (प्रतिक्रमण) किया जाता है एवं प्रायश्चित
27.सूत्रकृतांग 2/1/3 1 28-उत्तराध्ययन-6/9-111 29-आवश्यक नियुक्ति 95-9।
धमण संघ व्यवस्था
श्रमण संघ की व्यवस्था के लिए सात पद निर्धारित किये गये हैं 1-गणधर,, 2-आचार्य, 3-उपाध्याय, 4-स्थविर, 5-प्रवर्तक, 6-गणि, 7-गणावच्छेदक ।
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