Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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उत्तराध्ययन सत्र के बारहवें एवं पच्चीसवें अध्याय में वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर करारी चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, मेघावी, और सदाचारी है वह सच्चा ब्राह्मण है और वही श्रेष्ठ है । न कि किसी कूल विशेष में जन्म लेने वाला व्यक्ति ।
(स) यज्ञ मादि बाह्य क्रिया-कांडों का आध्यात्मिक प्रर्थ-जैन परम्परा ने तीर्थस्थान आदि धर्म के नाम पर किये जाने वाले "हिंसक" कर्मकांडों की न केवल आलोचना की अपितु उन्हें एक आध्यात्मिक अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययन सूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उस में कहा है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है; मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां ही कलछी (चम्मच) है और कर्मों का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ शांतिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है । तीर्थ-स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया है कि धर्म जलाशय है, ब्रह्म वर्य घाट (तीर्थ) है, उस में स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है ।
(द) दान, दक्षिणा प्रावि के स्थान पर संयम श्रेष्ठता-यद्यपि जैन परम्परा ने जनधर्म के चार अंगों में दान को स्थान दिया है किन्तु वह मानती है कि दान की अपेक्षा भी शील-संयम ही श्रेष्ठ है उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने धर्म को रूढ़िवादिता और कर्मकांडों से मुक्त करके अध्यात्मिकता से सम्पन्न बनाया है।
(डा. सागरमल जैन-श्रमण मासिक से साभार)
ईश्वर पूजा-उपासना को आवश्यकता ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है । इस सिद्धान्त के अनुसंधान में यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि फिर ईश्वर पूजन करने से क्या लाभ ? ईश्वर जब वीतराग है, वह प्रसन्न अथवा रुष्ट नहीं होता तब उस के पूजन का क्या प्रयोजन ? इस के विषय में जैन शास्त्रकारों का ऐसा कहना है कि ईश्वर की उपासना उसे प्रसन्न करने के लिए नहीं है, किन्तु अपने हृदय की, अपने चित्त की शुद्धि करने के लिए है । सभी दु:खों के उत्पादक राग-द्वेष को दूर करने के लिए राग-द्वेष (काम, क्रोध, मान, माया, लोभ मोह आदि) रहित परमात्मा का अवलम्बन लेना परम उपयोगी एवं आवश्यक है। मोह वासनाओं से भरा हुआ आत्मा स्फटिक जैसा है, अर्थात् स्फटिक के पास जैसे रंग की वस्तु रखी जायेगी वैसा ही रंग स्फटिक अपने में धारण कर लेता है। ठीक वैसे ही राग-द्वेष आदि जैसे संयोग आत्मा को मिलते हैं वैसे ही संस्कार आत्मा में उत्पन्न 35-वही 12/46/1 36-वही 12/40। 39-वही 9/40
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