Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चलित नही होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है।
व्यवहार चारित्र
व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन से है । व्यवहारचारित्र को देशव्रती चारित्र और सर्ववती चारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रती चारित्र का सम्बन्ध गहस्थ उपासकों से और सर्ववती चारित्र का सम्बन्ध श्रमणवर्ग से है। जैन परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारहव्रत, और ग्यारह प्रतिमाओं (अथवा सप्त व्यसन त्याग, 21 मार्गानुसारी गुण, सम्यक्त्व मूल-बारहवत, षडावश्यक, षटकर्म, ग्यारह प्रतिमाओं) का पालन आता है। श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रि भोजन निषेध, पांचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाए, बाईस परिषह जय, षडावश्यक, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार त्याग आदि का विवेचन उपलब्ध है। इस के अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, पात्र, आवास संबन्धी विधि निषेध है।
साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध
दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है । जैन आगमों में दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र नहीं होता। भक्तपरीक्षा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप से भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट, भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है, वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से प्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता है । वस्तुत: दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा 'निर्देश कर सकता है ! आचार्य भद्रबाहु प्राचारांग नियुक्ति में कहते हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं। जहां तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है, जैन विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है । उत्तराध्ययन सुत्र में यही बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता इस प्रकार जैन दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक ज्ञान का होना आवश्यक है। फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है । महावीर ने ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है। सूत्रकृतांग
25-भक्तपरीक्षा 65/66 26-आचारांग नियुक्ति 221 ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org