Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
View full book text
________________
11
दृष्टि से भी सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है । यह सही है कि आत्म तत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता उसे ज्ञाता ज्ञेय द्वेत के आधार पर नहीं जाना जा सकता क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं बन सकता, अत: आत्मज्ञान दुरुह है । लेकिन अनात्मतत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वे के आधार पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या ? और इस से वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे उस के स्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म हैं। सम्यक् ज्ञान आत्म-ज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । अनात्म के स्वरूप को जान कर अनात्म से आत्म का भेद करना यही भेद विज्ञान है और यही जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान का मूल अर्थ है ।
इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद विज्ञान कहा जाता हैं । श्राचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जो कोई सिद्ध है वे इस आत्म अनात्म के विवेक या मेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया हैं, किन्तु विस्तार पूर्वक यह समग्र विवेचना यहां संभव नहीं है ।
कारण ही हैं 23 ।
सम्यक् चारित्र
जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक् चारित्र हैं । इनके दो रूप माने गये हैं 1 - व्यवहार चारित्र और 2 - निश्चय चारित्र : आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र कहे जाते हैं । जब कि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कही जाती है। जहां तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्र ही उस का मूलभूत आधार है । लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है ।
निश्चय दृष्टि (Real View Point ) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है । मानसिक या चैतसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि यही चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है । वस्तुत: चारित्र का यह पक्ष आत्मरमण की स्थिति है | कि चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध माने गये हैं, चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी सच्चे
23 - समयसार टीका 132 1 24- जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग अध्याय 5
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org