Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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वह उन्हें अपने वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता है । आचार्य अमृतचन्द्र समयसार की टीका में लिखते हैं कि द्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है12 | आचार्य हेमचन्द्र ने भी साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा है कि कषाय और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और उन्हें विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मुक्त कहा गया है। वस्तुतः आत्मा की वासनाओं से युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं तथा विकल्पों से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष हैं। जैन अध्यात्मवाद का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं किन्तु उसके अन्दर है। धर्म साधना के द्वारा जो कुछ. पाया जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है । हमारी मूलभूत क्षमताएँ साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में समान ही हैं । साधक और सिद्ध अवस्थाओं में अंतर क्षमताओं का नहीं, परन्तु क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीजे व क्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। वैसे ही आत्मा भी परमात्मदशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता है। जैन धर्म के अनुसार अपनी ही बीज रूप क्षमताओं को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति हैं । जैन साधना 'स्व' के द्वारा 'स' को उपलब्ध करना है, निज में प्रसुप्त जिनत्व को अभिव्यक्त करना है। आत्मा को ही परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है । इस प्रकार साधक आत्मा का साध्य आत्मा ही है।
__ जैन धर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं है । हमारी ही चेतना के ज्ञान, भाव और संकल के पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधनामार्ग बन जाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र को जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र के रूप में साधनामार्ग बन जाते हैं।
इस प्रकार साधना मार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि मोक्षकामी को प्रात्मा को जानना चाहिये, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिये, और आत्मा को ही अनुभूति (अनुचरितव्यश्च) करना चाहिये । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम), और योग सब अपने आ को पाने के साधन हैं। क्योंकि यही आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्या: में है, संवर में है और योग मैं है । जिन्हें व्यवहार नय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया हैं। वे निश्चय नय से तो आत्मा ही हैं ।
11-अध्यात्मतत्त्वालोक 4/6 । 12-समयसार टीका 305 1 13-योग शास्त्र 4/5 1 14-समयसार 277 ।
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