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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५) दीपनं पिप्पलीमूलं क्टूष्णं पाचनं लघु । रूक्षं पित्तकरं भेदि कफवातोदरापहम् ॥ ६४ ॥
आनाहप्लीगुल्मघ्नं कृमिश्वापक्षयापहम् । ग्रन्थिक, पिप्पलीमूल, ऊषण और चटकाशिर यह पिप्पलीमूलके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे पिप्पलामूल, फारसीमें फिनफिलमोया और अगरेजी Piper Root कहते हैं।
पिप्पनामल-अग्निदीपक, कटु, उष्ण, पाचक, हल्का रूखा,पिनकारक, भेदन करनेवाला तथा कफ, वात, उदर, पानाह, प्लीहा, गुल्म, कृमि. रोग, श्वास तथा क्षयको नष्ट करता है॥६३ ॥ ६४॥
चतुरूषणम् । ज्यूषणं सकणामूलं कति चतुरूषणम् ॥६५॥ व्योषस्यैव गुणाः प्रोक्ता अधिकाश्चतरूपणे। संउ, काली मिरच, पीपल और पिपला मूल इन चारों को चतुरूषण कहते हैं। चतुरूपया में उपेषणवाले ही अधिक गाणा हैं ॥ ६५॥
चव्यम् । भवेच्चव्यन्तु चविका कथिता सा तथोषणा ॥६६॥ कणामूलगुणं चन्यं विशेषाद्दजापहम् । चध्य, चविक, ऊषण यह चव्यके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसको चय और अगरेजीमें Chavica Rax Burghi Piper Chava कहते हैं चव्यमें पीपल मूल सदृश ही गुण हैं परन्तु गुदासे उत्पन्न हुए रोगोंके लिये विशेषतः हितकारी हैं ॥ ६६॥
गजपिप्पली। चविकाया फलं प्राज्ञैः कथिता गजपिप्पली॥६७॥ कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसी बशिरश्च सा।