________________
(२१२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पौर यौवनसंपन्न स्त्रियोंको देखकर कामदेवसे पीडित चित्तवाले, अमिका जो शुक्र पृथ्वीपर गिरा,वह सुवर्ण बन गया। स्वर्ग,सुवर्ण,कनक,हिरण्य, हेम, हाटक, तपनीय, गांगेय,कलधौत, कांचन, चामीकर, शातकुंभ, भर्म, कार्यस्वर, जाम्बूनद, जातरूप,महारजत रुक्म,लोहवर,पग्निबीज,चांपेय, कर्बुर, अष्टापद, रसज, तैजस यह सोनेके नाम हैं। फारसी में इसे तिना, और अंग्रेजी में Gold करते हैं। प्राकृत,सहज, वह्निसंभूत, खनिसंभव तथा रसेंद्रवेधसंजात इन भेदोंसे पांच प्रकारका स्वर्ण होता है । जो स्वर्ण पाने में लाल, काटनेसे सफेद, कसौटीपर केशरका वर्ण देनेवाला, ताम्र और चांदी रहित. स्निग्ध, कोमल और भारी हो वह स्वर्ण उत्तम होता है। जो सोना सफेद, कठोर, खा,बुरे वर्णवाला,मनसहित, गांठके सदृश तपाने और काटने में सफेद, कसौटीपर सफेद, हलका और चोटसे फूट जानेवाला हो, वह स्वर्ण त्याग देना चाहिये । स्वर्ण-शीतन, वीर्यवर्धक, बनकारक, भारी, रसायन, मधुर तिक्त, कषाय, पाकमें मधुर, स्निग्ध पवित्र, बृंहण,नेत्रोंको हितकर,बुद्धि,स्मृति और मतिको देनेवाला,हृदयको प्रिय, आयुष्य कांति और वाणीको स्वच्छ बनानेवाला, स्थिरता देनेवाना, दोनों प्रकार के विष (स्थावर, जंगम ) तथा क्षब,उन्माद,विदोष ज्वर और शोथ इनको जीतनेवाला है । अशुद्ध ग्वर्ण-बल वीर्यको हरनेवाला,कायामें रोगों के समूह को बढानेवाला पौर शरीरके सुखका नाश करता है । तथ. मृत्युको करनेवाला होता है। इसी प्रकार ठीक भस्मित न किया हुआ (अधमरा ) स्वर्ण पल पौर वीर्यका नाश करता है। तथा रोगों और मृत्युको करनेवाला है। इसलिये सुवर्षको विधिपूर्वक शुद्ध करके उत्तम भस्म बना लेना चाहिये ॥ ३-१५॥
रजतम् ।
त्रिपुरस्य वधार्थाय निर्निमेषैर्विलोचनैः । निरीक्षयामास शिवः क्रोधेन परिपूरितः ॥