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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
ब्रह्मपुत्रः ।
वर्णतः कपिलो यः स्यात्तथा भवति सारतः २०१॥ ब्रह्मपुत्रः स विज्ञेयो जायते मलयाचले । ब्राह्मणः पांडुरस्तेषु क्षत्रियो लोहितप्रभः ॥ २०२॥ वैश्यः पीतोsसितः शूद्रो विष उक्तश्चतुर्विधः । रसायने विषं विप्रं क्षत्रिय देहपुष्टये ॥ २०३ ॥ वैश्यं कुष्टविनाशाय शुद्रं दद्यादधाय हि । विषं प्राणहरं प्रोक्तं व्यवायि च विकाशिच २०४ ॥ आग्नेयं वातकफहृद्योगवाहि मदावहम् । तदेव युक्तियुक्तं तु प्राणदायि रसायनम् ॥ २०५ ॥ योगवाहि त्रिदोषघ्नं बृंहणं वीर्यवर्द्धनम् । ये दुर्गुणा विषेऽशुद्धे ते स्युहींना विशोधनात् २०६ ॥ तस्माद्विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत् ।
ब्रह्मपुत्र विष- कपिल वर्णका होता है और मलयाचल में उत्पन्न होता है । इसकी चार जातियां होती हैं। उनमें ब्राह्मण पाण्डु वर्णका, क्षत्री लाळ वर्णका, वैश्य पीतवर्षका और शूइ कृष्ण वर्णका होता है ॥ रसायन कर्ममें ब्राह्मण, देह पुष्टिके लिये क्षत्री, कुष्ठ दूर करनेके लिये वैश्य और मारण क्रियामें शूद्र विषका प्रयोग करना चाहिये । ( इसको वैद्यलोग संखिया या पाषाण विष कहते हैं ।
विष-प्राणों को नष्ट करनेवाला, व्यवायी, विकाशी, अग्निगुणभूयिष, वात कफ नाशक, योगवाही और मदके करनेवाला होता है । वही विष यदि युक्तिपूर्वक प्रयोग किया जाय तो प्राणदायक, रसायन, योगवाही, त्रिदोषनाशक, बृंहण और वीर्य्यबर्द्धक हो जाता है ।