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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
गायका घी - विशेष करके नेत्रोंको हितकारी, वीर्यवर्द्धक, अग्निदीपक पाक और रसमें स्वादु, शीतल, त्रिदोषनाशक, मेधा, लोवण्य, कांति तेज, पोज इनकी वृद्धिको करनेवाला, अलक्ष्मी, पाप और राक्षस भयको नष्ट करनेवाला, भायुको स्थापित करनेवाला, भारी, बलवर्द्धक, पवित्र मायुवर्द्धक, मङ्गलकारक, रसायन, सुगन्धयुत, रुचिकारक सुन्दर तथा सर्वघृतों से अधिक गुणकारी है।
भैसका बी- स्वादु, पित्त, रक्त तथा वायुको दूर करनेवाला, शीतल, कफ वर्धक, वीर्यवर्धक भारी तथा पाकमें स्वादु है ।
बकरीका घी - अग्निदीपक, नेत्रोंको हितकारी, बलवर्धक कटु तथा कास श्वास और क्षयमें हितकारी है
ऊंटनीका घी - पाक में कटु, दीपन, कफ और वातको नष्ट करने वाला तथा शोष, कृमि, विष, कुछ, गुल्म और उदररोग को दूर करनेवाला है ।
भेडका घी - पाक में लघु, सर्वरोगनाशक, अस्थियोंकी वृद्धिको करने - वाला, पथरी तथा शकराको नष्ट करनेवाल', नेत्रोको हितकारी, अग्निदीपक, वातदोषोंका निवारण करनेवाला है ।
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नारीका घी-कफ, वात, योनिदोष, वात, रक्तविकार में हितकारी नेत्रोको हितकारी तथा अमृत के समान है ।
घोडीका घी-देहकी अग्निको दीपन करनेवाला है; पाकमें हलका है, विषविकारको दूर करता है, तर्पण है, नेत्ररोगनाशक है तथा दाहको दूर करता है ॥ १-१३॥
घृतं दुग्धभवं ग्राहि शीतलं नेत्ररोगहृत् । निदंति पित्तदाहास्रमदमूर्छा भ्रमानिलान् ॥ १४ ॥
दूधले उत्पन्न हुआ थी -ग्राही, शील, नेत्ररोगों को हरनेवाला, पित्त, दाह, रक्तविकार, मद, मूर्छा, भ्रम और वायुको दूर करता
॥ १४ ॥
इविर्ह्यस्तनदुग्धोत्थं तत्स्याद्वैयंगवीन कम् । हैयंगवीनं चक्षुष्यं दीपनं रुचिकृत्परम् ॥ १५ ॥