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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४०७) अलीकमत्स्य उक्तोऽयं प्रकारम्पाकपंडितः । तं वृन्ताकभटित्रेण वास्तूकेन च भक्षयेत् ॥ ६२॥ बडे नागरवेनके पान उडदकी पिट्ठ'मे लपेटकर युक्ति ने कढाई में पकाये, फिर छोटे छोटे कतर के तेल में भून लेवे तो अलीकमस्य तैयार होते हैं, इनको बैंगनके भरतेके साथ अथवा बथुएके सागसे या रायतेस भाक करे ॥ ६१ ॥ ६॥
अथ कथिता ( कढी)। स्थाल्यां घृते वा तैले वा हरिद्र हिंगु भर्जयेत। अवलेह नसंयुक्तं तकं तत्रैव निक्षिपेत् । एषा लिद्धा समरिचा कथिता कथिता बुयैः ॥६३॥ कथिता पाचनी रुच्या लघ्वी वह्नि प्रदीपिली।
कफानिलविबन्धघ्नी किचित्पित्तप्रकोपिणी ॥६॥ . अलीकमत्स्याः शुष्का वा किंवा क्वथितया पुनः
बृंहणा रोचना वृष्या बल्या वातगदापहा ॥६५॥ ' कोष्ठशुद्धिकराःशुत्या किंचित्पित्तप्रकोपणाः॥ , अर्दित सहनुस्तंभे विशेषेण हिताः स्मृताः ॥६६॥
कढाई में धी अथवा तेल डालकर उसमें हलदी और होगको भने, पश्चात रसमें धुला हुआ वेपन और मट्टा डाले, फिर नोन, मिरच, मसाला प्रादि डाना र पक वे, पकने पर क्यथिता (कढी) तयार होती है। कढी-पाचक, रुचिकारक, हलकी, अग्निदीपक, किश्वत पिनकोपक और कफ, वात तथा मलके अवरोधको नष्ट करती है। ऊपर कही हुई अलीकमत्स्य सखी खावे या कढी माय खावे । कहीं साथ खाई हुई-पुष्टिकारक, रुचिकारी, पुष्प, बलकारक, और बातसम्बन्धी रोगोंको
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