Book Title: Harit Kavyadi Nighantu
Author(s): Bhav Mishra, Shiv Sharma
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas

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Page 465
________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४२३ ) शकरोदकसंयुक्तं कर्पूरादिसुसंस्कृतम्। नूतने मृन्मये पात्र स्थितं पित्तहरं परम् ॥ १४२॥ धनियोंको शीलापर भली भांति पीसकर बमें छान लेवे उसमें बराका पानी डाले और कपरादिसे सुगंधित करे और उसको नवीन मट्टी के पात्र में रक्खे वह पन्ना अत्यन्त पित्तनाशक है ।। १४१ ।। . अथ काजी। (कांजीविधिषटकावसरे लिखितः)। कांजीकं रोचनं रुच्यं पाचनं वह्निदीपनम् । शूलाजीर्णविबन्ध कोष्ठशुद्धिकरं परम् । न भवेत्कांजिकं यत्र तत्र जालिम्प्रदीयते ॥ १४३॥ कांजी बनाने की विधि बडे बनाने के विषयमें लिख पाये हैं, कांजीका प्रपानक-रुचियुक्त, रुचिकारक, पाचक, अग्निको दीपन करनेवाला और शूल, अजीर्ण तथा मलबंधनाशक है और कोठेको अत्यन्त शुद्ध करनेवाला है। कांजी जहां न मिले वहां नीचे लिखी हुई जाली देवे ॥ १४३॥ अथ जालिः। आममाम्रफलं पिष्टं राजिकालवणान्वितम् । भृष्टहिंगुयुतं पूतं घोलितं जालिरुच्यते ॥ १०४ ॥ जालिहरति जिह्वायाः कुण्टत्व कण्ठशोधनी। मन्दं मन्दन्तु पीता सारोचनी वह्निबोधनी ॥१४॥ कच्ची अमियोंको पीसकर उसमें गई, संधानों और भुनी हुई हींग डालकर उसे पानी में घोल लेधे, उसको जाली कहते हैं। जाली-जीभकी जडताको नष्ट करती है तथा कण्ठको शुद्ध करती, यह जालो धीरे पीधे तो अत्यन्त रुचिकारी और अग्निवर्द्धक है ॥ १४४ ।। १४५ ॥ ANO !Shuigyanam

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