Book Title: Harit Kavyadi Nighantu
Author(s): Bhav Mishra, Shiv Sharma
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas

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Page 469
________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४२७) उसको नाजा (खील) कहते हैं। खील-मधुर, शीतल, हलकी, अग्निप्रदीपक, मल तथा मूत्रको अल्प करनेवाली, रूक्ष बनदारक और पित्त, कफ, वमन, अतीसार, दाह, रक्तविकार प्रमेह, भेद तथा तानाशक हैं। १५८ ॥ १५९ ॥ अथ चिपिटाः (चिउड़ा )। शालयः सतुषा आर्द्रा भृष्टाअस्फुटिताश्च तत् । कुट्टिताश्चिपिटाः प्राकास्तेस्मृताः पृथुकाअपि१६० पृथुका गुरखोवातनाशनाः श्लेष्मला अपि । सक्षीरा बृंहणा वृष्या बल्या भिन्नमलाश्च ते॥१६॥ भसी सहित गीने शालि धान्यों को भूनकर विना खिले ही तत्काल कूट देवे कूटकर चिपटे हो जाते हैं तो उनको चिपिट और पृथुन कहते हैं। पृथुक (चिउड़ा) भरी, वातनाशक, कफकारक, खरी, पृष्टिकारक वृष्य, बलदायक और मलभेदक, (दस्त लानेवाले ) हैं । १६० ॥ १६१ ॥ अथ होला । अर्द्धपक्वैशमीधान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः । होलकोऽल्पानिलो मेद कफदोषत्रयापहः । भवेद्योहोलको यस्य स च तत्तद्गुणो भवेत् ॥१६२॥ अधपके शमी धान्यों को तोड़कर भूनले उसको होला काते हैं । होळाअल्प वातकारक और मद तथा विदोषनाशक है । जिस धान्यके होने होय उसके गुण भी उन होलो में रहते हैं ॥ १६२ ॥ अथ उची ( उंबी)। मञ्जरीत्वपक्वा या यवगोधूमयोर्भवेत् । तृणानलेन संभृष्टा बुधैरूचीति सा स्मृता ॥१६३॥ Aho! Shrutgyanam

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