________________
हरीतस्यादिनिघण्टुः भा. टी.। ११३) रुचिकारी, पुष्टिकारक, बलदायक, भारी, वात तथा पित्तनाशक, पुण्य कफनाशक और वीर्यवर्द्धक है ॥ ९१-९३ ॥
.. अथ मांजरसः ( सुरवा) सिद्धासरसो रुच्यः श्रमश्वासक्षयापहः । पीणनो वातपित्तघ्नः क्षीगानामरूपरेतसाम् ॥९॥ विशिष्ट भग्न सन्धीनां शुद्धानां शुद्धिकाक्षिणाम् । स्मृत्योजोबलहीनानां ज्यरक्षीणक्षतोरसाम् ॥ ९५ ॥ शस्यते स्वरहीन नां दृष्टयायुःश्रवणार्थिनाम् । प्रकार: कथिताः सन्ति बहवो मांसम्भवाः। ग्रन्थविस्तारभीतेस्ते मया नात्र प्रकीर्तिताः॥९६ ॥ पकाये हुए मांसका रस-रुच हारक, प्रिदायक, पात तथा पित्तना. शक और परिश्रम, वास तथा क्षयनाशक है । क्षीण ( दुबले ) तथा अप. मीर्यवालोको पुष्टकर्ता, विदरी हुई और दूटी संधियों को जोडनेवाला शरीरकी शुद्धि चाहनेवालोको, स्मृति, भोज तग बलहीन को, ज्वरो सीण हुर और क्षतरोगवालों की, सरहीनोंको, दृष्टि, पायु और श्रषण शक्ति बढानेवाल'को तथा स्वस्थ शरीरवालोंको भी मांस का रस परम हितकारी है। मांस बनाने के भेद अनेक प्रकारके हैं. । परन्तु यहाँ ग्रन्थका विस्तार होनेके भय से नहीं कहे हैं ।। ९४-९६ ॥
अथ शाकपाविधिः। हिंगुनीरयुते तैले शिपेच्छाकं सुखण्डितम् । लवगं चाम्लचूर्गादि सिद्धे हिंगूदकं क्षिपेत् । इत्येवं सर्वशाकानां साधनोऽभिहितो विधिः ॥९७॥ में रोम वा मीरा भने पश्चात सुधारामा थाक कतरकर उसमें
Aho! Shrutgyanam