________________
(४२०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
दुग्धेनाईघटेन मृन्मयनवस्थाल्यां दृढं स्रावयेदेलाबीजलवंगचन्द्रमरिचैर्योग्यैश्च तद्योजयेत् १२९॥ भीमेन प्रियभोजनेन रचिता नाम्ना रसाला स्वयं श्रीकृष्णेन पुरा पुनःपुनरियं प्रीत्या समास्वादिता। एषा येन वसन्तवर्जितदिने संसेव्यते नित्यशस्तस्य स्यादतिवीर्यवृद्धिरनिशं सर्वेन्द्रियाणां बलम् ।। १३०॥ ग्रीष्मे तथा शरदि ये रविशोषितांगा ये च प्रमत्तवनितासुरतातिखिन्नाः। ये चापि मार्गपरिसर्पणशीर्णगात्रा
स्तेषामियं वपुषि पोषणमाशु कुर्यात् ॥१३॥ .. रसाला शुक्रला बल्या रोचनी वातपित्तजित । ति दीपनी बृंहणी स्निग्धा मधुरा शिशिरा सरा।
रक्तपित्ततृषां दाहं प्रतिश्यायं विनाशयेत् ॥१३२ ॥ । प्रथम सा तथा जलरहित दोसौ छप्पन २५६ तोले भर भैसका दही लेवे और उसको स्वच्छकपडेमें रख कर एकसो अठाईस १२८ तोला भर सफेद दूरा डालकर नीचेको स्वच्छ नवीन मिट्टौके पात्रमें दही छानता नाय, पश्चात इसमें पांचसौ बारह ५१२ तोला भर दूध डाले और इलायची, लौंग, कपूर, मिरच, यथा-योग्य डाले। प्रिय भोजन के' बनानेवाले भीमसेनने स्वयं यह रसाना बनाई थी और श्रीकृष्णने परम प्रीति से वारंवार स्वाद लेकर खाई थी । जो मनुष्य वसन्तऋतुको त्यागकर नित्य साना भोजन करते हैं उनको निरन्तर वीर्यकी अत्यन्त वृद्धि होती है और सर्व इन्द्रियोंमें बम बढता है । जिनका शरीर ग्रीष्म तथा शरदऋतुमें सूर्षके तापसे सूख गया है, जो महोन्नता शियोंके संभोगसे अतिखिन