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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . ।
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योगे यदप्रधानं स्यात्तस्य प्रतिनिधिर्मतः ॥ ५६ ॥ यत्तु प्रधानं तस्यापि सदृशं नैव गृह्यते ॥
इति द्रव्यपरीक्षादिवर्गः ।
मेदा और महामेदाके अभाव में मतावर, जीवक और ऋषभ कके प्रभाव में विदारीकन्द, काको ती मौर क्षीरकाको तीके प्रभाव में वाराही कन्द डालना चाहिये । वाराही कन्द के अभाव में चर्म करालू डालना चाहिये । वाराही कन्दकाही एक भेद चर्म्म हालू होता है जो धनूर देशोंमें उत्पन होता है । और वाराह की तरह लोमाला होता है । भल्लातकी के साथ नाल चन्दन मिलाना चाहिये, लेकिन भिलावों के अभाव में चिना और के अभाव में डा तथा रुपर्णके अभाव में स्वर्णमाक्षिक डालना चाहिये। चांदी के अभा में श्वेतमाक्षिक, माक्षिकके अभाव में स्वर्णगैरिक डालना न हिये, जहाँ मृतस्वर्ण और चांदी न मिले हां कान्तलोहसे और कान्तलोहके प्रभावमें तीक्ष्णलोहसे विचक्षण वैद्यको कार्य करना चाहिये। मौकिक के प्रभाव में मुक्ताशुक्तिका, मत्स्यण्डीके अभाव में शर्कराका, सिता ( मिलरी ) के प्रभा
में खांडका प्रयोग करना चाह। दूध के प्रभाव में मूंग या मसूरीका यूष दिया जाता है। यहां जो जो वस्तुएँ कही हैं उनमें से किसीके अभाव होनेपर वैद्यको उचित है कि रस वीर्य विपाकादिमें समान द्रव्य सोचकर उसकी जगह प्रयोग करे ।
योग में जो द्रव्य अप्रधान होता है उसका, तो प्रतिनिधि ले लेया जाता है परन्तु प्रधान द्रव्य (जैसे च्यवनाशमें आमलों और योगराज गुगुल ) - का प्रतिनिधि नहीं लेना चाहिये अर्थात् प्रधान द्रव्य अच्छा और विना बदलेके वह प्रधानही द्रव्य लेना चाहिये ॥ ४५-५६ ॥
इति श्री वैद्यरत्न पण्डित रामप्रसादात्मज - विद्यालंकार शिवशर्म वैद्यशास्त्रकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ द्रव्यपरीक्षादिवर्गः ॥ २१ ॥
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