Book Title: Harit Kavyadi Nighantu
Author(s): Bhav Mishra, Shiv Sharma
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३८५) निद्राशुक्रप्रदं बल्यं तनुदाळकरं गुरु। वृण्यञ्च सृष्टविमूत्रं वातपित्तास्रनाशनम् ॥ ८५ ॥ महिष, घोटेकारि, कासर, रजस्वल, पीनस्कन्ध, कृष्णा काय, लुलाय और यमवाहन ये भले के संस्कृत नाम हैं।
भैसेका मांस-मधुर, स्निग्ध, गरम, वातनाशक, निद्रा. शुक, बलदा. यक शरीरको दृढ करनेवाला, वृष्य, मल तथा मूत्रको आधेक करनेवाला पौर वात, पित्त तथा रक्तविकारनाशक है ॥ ८४ ॥ ८५॥
अथ मण्डूका ( मेंडक) मंडूकः प्रगो भेको वर्षाभूर्द१रो हरिः मंडूकःखेमलो नातिपित्तलो बलकारकः ॥८६॥ मण्डूक, प्नवग, भेक, वर्षा दर्दुर और हरि ये मेंड के संस्कृत नाम हैं। मेंडकका मांत-कफकारक, अत्यन्त पित्तकारी नहीं और बमदायक है॥ ८६ ।।
अथ पादिनः ।
तत्र कच्छपः (कछुआ) कच्छपो गूढपाकूर्मः कमठो दृढपृष्ठकः । कच्छपोः बलदो वातपित्तनुत्पुंस्त्वकारकः ॥८॥ कच्छप, गृहपाह. कूर्म, कमठ और दृष्टष्ठक ये कछु के संस्कृत नाम हैं। कछुएका मांस-बलदायक, वात तथा पित्तको नष्ट करनेवाला और वीर्यकारक है ।। ८७ ॥
सबोहतस्य मांसस्य गुणाः। सद्योहतस्य मांस स्याद्व्याधिघाति यथामृतम् ।
वयस्यं बृहगं मात्म्यमन्यथा तद्धि वर्जयेत् ॥८८॥ - तत्कालके मारेहुए जीवों का मांस-प्रमतके सदृश, रोगनाशक, मायु:
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