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हरीतक्यादिनिघण्टा भा. टी.। (३५५ ) मुरावद्वारुणी लघ्वी पीनसाध्मानशूलनुत् ।। इक्षो पक्वरसै सिद्धः सीधुः पक्वरसश्च सः ॥२५॥ आमस्तैरेव यः सीधुः स च शीतरसः स्मृतः । सीधुः पक्वरसः श्रष्ठः स्वराग्निबलवर्णकृत् ॥२६॥ वातपित्तकर सबस्नेहनो रोचनो हरेत् । विबंधमेदःशोफार्शःशोषोदरकफामयान् ॥२७॥ गनोंके पक्के रससे जो मद्य बनाई जाय, उसको पक्वरससीधु और गन्नेके कच्चे रससे बनाई हुई मद्यको शीतलरससीधु कहते हैं। पक्वरस. सीधु-मुणोंमें श्रेष्ठ, स्वरको उत्तम करनेवाली, अग्नि पौर बलको बढानवाली, वर्णको उत्तम करनेवाली, वातपित्तकारक, शीघ्र ही स्निग्धताको दिखानेवाली । रोचन तथा विबन्ध, मेद, सूजन, उदररोग और कफ इन व्याधियोंको नष्ट करती है ।। २५-२७ ॥
तस्मादल्पगुणः शीतरसः संलेखनः स्मृतः। यदपक्वौषधांबुभ्यां सिद्ध मद्यं स आसवः ॥२८॥ आसवस्य गुणा ज्ञया बीजद्रव्यगुणः समाः। शीतरससीधु उससे अल्प गुणवाली तथा लेखन करनेवाली है। विना पकी औषधियों तथा जलसे बनाई हुई मद्यको पासव करते हैं। आसपके गुण जिन पदार्थों से आसव बनाया जाय उनके समान ही होते हैं ॥२८॥ मद्य नवमभिष्यंदि त्रिदोषजनकं सरम् ॥२९॥ अहृद्यं बृंहणं दाहि दुर्गधं विशदं गुरु । जीर्ण तदेव रोचिष्णु कृमिश्लेष्मानिलापहम् ॥३०॥ हृद्यं सुगंधिगुणवल्लघु स्रोतोविशोधनम् । नवीन मद्य-अभिष्यन्दी, त्रिदोषकारक, स्वावर, इदयको अप्रिय,