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( ३०८ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शुचि सांद्रपटस्रावि क्षुद्रजंतु विवर्जितम् । स्वच्छं. कनकमुक्ताद्यैः शुद्धं स्याद्दोषवर्जितम् ॥ ८४ ॥ पर्णमूल बिग्रंथिमुक्ताकतकशैवलैः । गोमेदेन च वज्रेण कुर्य्यादंबुप्रसादनम् ॥ ८५ ॥ पीतं जलं जीर्य्यति यामयुग्मा
द्यामैंकमात्राच्छ्रुतशीतलं च । तदर्द्धमात्रेण शृतं कदुष्णं पयःप्रपाके त्रय एव कालाः ॥ ८६ ॥
इति वारिवर्गः ।
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दूषित जल - उबालने से, सूर्यकी किरणों द्वारा सपाने, सुवर्ण, चांदी, छोह, पत्थर और रेहेको तंपावर सात बार बुझानेसे, कपूर, जाति, पुन्नाग (बेशर) और पादल आदिले सुवासित करनेसे, सफेद चौर गाठे कपड़े में छानने द्वारा क्षुद्रजन्तुको निवाल देने से और सुवर्ण तथा मोती प्रादिसे स्वच्छ करनेपर निर्दोष हो जाता है । पत्ते जड़ पौर बिससे तथा मुक्ता निर्मदिफल शैवल जल पिया हुआ दो याममें, गरम जल एक याम तथा किंचित गरम जल चार घडीमें पच जाता है। जल के पचने के यह तीन ही समय हैं ।। ८२-८६ ॥
इति श्रीवैरत्न पंडित रामप्रसादात्मज - विद्यालंकारशिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत- शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ वारिवर्गः समाप्तः ॥ १० ॥
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