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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
वित्रकोष्ठगतव्याधीन् कुष्ठशोधतृषा कृमीन् । नैव तर्क क्षते दद्यान्नोष्णकाले न दुर्बले ॥ १८ ॥ न मूर्च्छाभ्रमदाहेषु न रोगे रक्तपित्तजे । यान्युक्तानि दधीन्यष्टौ तद्गुणं तक्रमादिशेत् ॥ १९॥
इति तवर्गः ।
मूत्रकृच्छ्रमें गुड डालकर पिया हुआा तथा पाण्डुरोगमें चित्रक डालकर पिया हुआ घोल गुणकारी होता है ।
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कच्चे दूधका तक्र-कफको कोठेमें हरता है तथा कण्ठमें उत्पन्न कर देता है | अतः पीन्स, श्वास, कास आदिमें पक्के दूधका तक दी प्रयुक्त करना चाहिये ।
शीतकाल में, अग्निकी मंदतामें, वातव्याधियों में, प्ररुचिमें, नाडियोंके रोध में तक अमृतके समान होता है। तक्र-विष, वमन, प्रसेक, मूत्रग्रह भगन्दर, प्रमेह, गुल्म, प्रतिसार, शूळ, प्लीहा, उदररोग, अरुचि, श्वित्रकोट, कोष्ठगतरोग, कुष्ठ शोथ, तृषा और कृमिरोगको दूर करता है।
में, उकाल में, दुर्बल मनुष्य को, रक्त पित्तज विकार में तथा मुच्छ म और दाइ तक देना अच्छा नहीं है ।
आठ प्रकार की दहियों में से जिस २ दहीका जो तक्र है उस २ दहीके. झुण उस २ तक में जानने चाहिये ॥ १४-१९ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न पंडितरामप्रसादात्मज - विद्यालङ्कार- शिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत - शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ तकवर्गः समाप्तः ॥ १३ ॥
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