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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । विषम् । विषं तु गरलं क्ष्वेडस्तस्य भेदानुदाहरे । वत्सनाभः स हारिद्रः शक्तुकश्च प्रदीपनः ॥ १९० ॥ सौराष्ट्रकः शृंगिकश्च कालकूटस्तथैव च । हालाहलो ब्रह्मपुत्रो विषभेदा अमी नव ॥ १९१ ॥
विष गरल और दवे यह विषके नाम हैं । वम्मनाभ, हारिद्रक, शक्तुक, प्रदीपन, सौराष्ट्रिक, शृंगिक, कालकूट, हालाहल और ब्रह्मपुत्र यह नौ विषके भेद हैं ॥ १९० ॥ १९१ ॥
(२४७ )
वत्सनाभः ।
सिंधुवारसह पत्रो वत्सनाभ्या कृतिस्तथा । यत्पार्श्वे न तरोवृद्धिर्वत्सनाभः सभाषितः ॥ १९२॥ ( दारिद्रः ) हरिद्रातुल्य मूलो योहारिद्रः सउदाहृतः । (शक्तुकः) यद्रंथिःशक्तुकेनेव पूर्णमध्यः सशक्तुकः १९३
वत्सनाभ विषक संभालूकी तरह के पत्र होते हैं । वत्सकी नाभीके आकारका मूल, होता है। और उसके समीप कोई भी वृक्ष बडे साकारका नहीं हो सकता, यह लक्षण वत्सनाभके हैं ।
हारिद्रक: विषका मूल हल्दीकी गांडके समान निकलता है ।
जिस विषकंदका मध्यभाग कणकेदार ग्रंथियोंसे भरा हुआ होता है उसे सक्तुक कहते हैं ॥ १९२ ॥ १९३ ॥
प्रदीपनः ।
वर्णतो लोहितो यः स्यादीप्तिमान् दहनप्रभः । महादाह करः पूर्वैः कथितः स प्रदीपनः ॥ १९४ ॥ (सौराष्ट्रकः) सुराष्ट विषयेयः स्यात्स सौराष्ट्रिकउच्यते ।
जो विषकंद वर्ण में लाल, अग्नि के समान दीप्तिमान और महादाइके करनेवाला होता है उसको प्रदीपन कहते हैं । १९४ ॥