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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३३) करता है इसे दर्दुर कहते हैं । इसके सेवनसे शरीरमें ग्रंथियां उत्पन्न होकर मृत्यु होती है। जो अभ्रक अग्निमें तपानेले सापके. समान फुकार करे, उसको नाग कहते हैं । नामाभ्रक खानेसे भगन्दर आदि दाहण रोग उत्पन्न होते हैं। जो अभ्रक अग्निमें तपानेसे विकृति को प्राप्त न हो और वनके समान वैसा ही स्थिर रहे उसे वज्राधक कहते हैं । वज्राभेक सब अभ्रकोंमें श्रेष्ठ है तथा व्याधि, वार्द्धक्य और मृत्युको हरनेवाला है । उत्तरके पहाड़ोंने उत्पन्न हुआ अभ्रक बहत सतवाना और गुणमें अधिक होता है। दक्षिणके पहाड़ोंमें उत्पन्न हुआ अभ्रक अल्प सत्व और पल्प गुणवाला होता है ॥ ११४-१२४ ॥ अभ्र कषायं मधुरं सुशीतमायुःकरं धातुविवर्द्धनं च । इन्यात्रिदोष व्रणमेहकुष्ठं प्लीहोदरं ग्रंथिविषक्रिमीश्च ।।
रोगान् हंति दृढयति वपुर्वीर्यवृद्धिं विधत्ते । तारुण्याढायं रमयति शतं योषितां नित्यमेव । दीर्घायुष्काअनयति सुतान् विक्रमैः सिंहतुल्या
न्मृत्योर्भीतिं हरति सततं सेव्यमानं मृताभ्रमम् १२६ पीडांविधत्ते विविधां नराणां कुष्ठं क्षयं पांडुगदं च शोथम् हृत्पार्थपीडां च करोत्यशुद्धमधवसिद्धं गुरुतापदंस्यात् मनक-कषाय, मधुर, शीतल,मायुवर्द्धक और धातु प्रोंको पुष्ट करनेवाला है। तथा बिदोष, व्रण, प्रमेह, कुष्ठ, जोहा, उदररोग, ग्रंथि, विष और कृमियोंको दूर करता है । वज्राभ्रककी उत्तम भस्म बनाकर खानेसे सेपूर्ण रोग दूर होते हैं । शरीर दृढ होता है। वीर्य की वृद्धि होती है और सैकडॉ.खियोंके संगकी शक्ति हो जाती है । तथा तारुण्य पाजाता है और इस प्रभावले तिहतुल्य पराक्रमवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं। तथा मृत्युका भय दूर होता है । यह उत्तम भस्मित वाचकके गुण हैं । यदि विना अद्ध किये हुए चंद्रिकायुक्त अभ्रकका सेवन किया जाय तो कुष्ठ, क्षय,