________________
(२३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। पिनाकं दर्दुरं नाग वज्र चेति चतुर्विधम् । मुंचत्यग्नौ विनिक्षिप्तं पिनाकं दलसंचयात् ।। ११९।। अज्ञानाद्भक्षणं तस्य महाकुष्ठप्रदायकम् । ददुंर त्वग्निनिक्षिप्तं कुरुते दर्दुरध्वनिम् ॥ १२० ।। गोलकान बहुशः कृत्वा स स्यान्मृत्युप्रदायकः । नागं तु नागवद्वह्नों फूत्कारं परिमुंचति ॥ १२१ ॥ तद्भक्षितमवश्यं तु विदधाति भगंदरम् । वज्रन्तु वज्रवत्तिष्ठेत्तनानी विकृति व्रजेत ॥ १२२ ॥ सर्वाभ्रेषु वरं वज्रं व्याधिवाक्यमृत्युहृत् । अभ्रमुत्तरशैलोत्थ बहुसत्त्वं गुणाधिकम् ॥ १२३ ।। दक्षिणाद्रिभवं स्वल्पसत्त्वमल्पगुणप्रदम् ॥ १२० ।।
वकालमें वृत्रासुरको मारने के लिये जब इन्द्र ने वज्र उठाया तो उसमें से चिंगारियाँ निकल कर इधर उधर फैल गई । फिर वह चिगारियां मेघोंमें फैल कर पहाडोंके शिखरों पर गिर गई। उनसे उन उन पहाडोंमें अधक उत्पन्न हो गया। यह वज्रमेंसे गिरनेके कारण वज्र मेघों द्वारा आने से अधक,गगनसे मिरनेके कारण गगन नामले प्रसिद्ध हुमा, फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार जातियोंवाला क्रमसे श्वेत, रक्त, पीत मौर कृष्ण इन चार वर्णों में विभक हुआ है। इनमें चांदी बनानेके काममें श्वेत, रसायन में लाल, स्वर्ण क्रिया में पीला, सर्व रोग निवृत्ति के लिये, तथा द्रुति कर्मके लिये कृष्ण अभ्रक अच्छा होता है। कृष्णाभ्रक, पिनाक दुर्दर, नाग और बज्र इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है। जो अभ्रक अग्निमें डालकर धमानेसे अपने दल के संचयको त्यागता है, उसको पिनाक कहते हैं। यदि इसको ज्ञानसे खा लिया जाय, तो महाष्ठोंको उत्पन्न करता है। जो अभ्रक अग्निमें डालकर पानेसे मेंढककी तरह टर्र २ के शब्द