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(१९८) भावप्रव शनिघण्टुः भा. टी.।
पञ्चवल्कल-ग्राही, शीतल, तथा व्रण, शोथ और विसर्पको जीतने वाला है। उनके पत्ते-शीतल, ग्राही, हलके, तिक्त, कसैले, किंचित लेखन
और कफ, वात, रक्तविकार, विष्टम्भ तथा माध्मानको जीतनेवाले हैं ॥ १५॥१८॥
शालः। ( शालस्तु सर्जकाश्विकर्णकाः सस्यसंवरः ॥१९॥
अश्वकर्णः कषायः स्याद्रणस्वेदकफक्रिमीन् । बनविद्रधिबाधिर्ययोनिकर्णगदान्हरेत ॥२०॥
जाल, सर्ज, कार्य, अश्वकर्णक और सस्यसंवर यह शालके नाम । इसको अंग्रेजी में Salhel कहते हैं । शाल-कसैला तथा व्रण, स्वेद, कफ, कृमि, ब्रन, विद्रधि, बधिरता, योनिरोग और कर्णरोग इनको दूर करनेवाला है ॥ १९ ॥ २० ॥
शालभेदः। सर्जकोऽन्योऽजकर्णः स्याच्छालो मरिचपत्रकः। अजकर्णः कटुस्तिक्तः कषायोष्णो व्यपोहति ॥२१॥ कफपांडुश्रुतिगदान्मेहकुष्ठविषव्रणान् । अन्य प्रकारके खालको प्रमकर्ण, शान और मरिचपत्रक कहते। प्रजकर्ण-कटु, तिक,कसैना गरम तथा कफ,पाण्डुरोग,कर्णरोग,ममेह कुछ विष और व्रणोंको नष्ट करता है ॥२१॥
शलकी।
शल्लकी गजभक्षा च सुवहा सुरभी रसा। महेरुणा कुंदुरुकी वल्लकी च बहुलवा ॥२२॥