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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२९) यः स मेदेति विज्ञयो जिज्ञासातत्परैर्जनैः । स्वल्पपर्णी मणिच्छिद्रा मेदा मेदोभवाधरा॥१२९॥ महामेदा वसुच्छिद्रा त्रिदंती देवतामणिः। मेदायुगं गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यकफावहम् ॥१३०॥ बृंहणं शीतलं पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत् । महामेदा नामका कन्द मोरंग आदि पहाड पर उत्पन्न होता है।मरामेद और अवनिमेदा यह महामेदाके नाम मुनीश्वरोंने कहे हैं। महामेदा नामका कन्द सूखे हुए अदरकके समान श्वेत तथा ल तासे उम्पन्न होता है। अब मेदाका लक्षण कहते हैं। जिस श्वेत कन्दको नखसे छेदने पर मेद धातु के समान रस निकले उसे जिज्ञासु मनुष्य मेदा कहते हैं । स्वल्पपर्णी,मणिच्छिद्रा,मेदा, मेदोभवा, अधरा यह मेदा के नाम हैं। महामेदा, पसुछिद्रा, विदन्ती, देवतामणि यह महामेदाके नाम हैं। मेदा और महामेदा-भारी, . मधुर,वीर्यवर्धक,दूध तथा कफको बढानेवाली,धातुपोंको पुष्ट करनेवाली, शीवल तथा पित्त,रुधिरविकार,वात, ज्वर इनको नष्ट करती है ॥१२६-१३०
काकोल्योः।
जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले ॥१३॥ यत्र स्यात्तीरकाकोली काकोली तत्र जायते । पीवरीसदृशः कन्दक्षीरं स्रवति गंधवान् ॥ १३२॥ सा प्रोक्ता क्षीरकाकोली काकोलीलिंगमुच्यते। यथा स्यात्क्षीरकाकोली काकोल्यपितथा भवेव१३३ एषा किंचिद्भवेत्कृष्णा भेदोयमुभयोरपि । काकोली वायसोली च वीरा कायस्थिका तथा॥१३४
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