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(५६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सुहागा-वहिवर्द्धक, रूक्ष कफनाशक और वातपित्तके करनेवाला है॥२५५॥
क्षारद्वयं क्षारत्रयं च । स्वर्जिकायावशूकश्च क्षारद्वयमुदाहृतम् ॥ २५६ ॥ टंकणेन युतं तत्तु क्षारत्रयमुदीरितम् । मिलितस्तूक्तगुणवद्विशेषादगुल्महत्परम् ॥ २५७ ॥ सज्जीखार और जौखारके मिलानेसे क्षारद्धय कहा जाता है। यदि इनमें मुहागा मिला दे तो क्षारत्रय बन जाता है। तीनों क्षार मिले हुए उपरोक्त गुणोंको विशेष रूपसे करते हैं। और गुल्मको तो विशेषरूपसे नष्ट करनेवाले हो जाते हैं । २५६ ॥ २५७ ॥
क्षाराष्टकम् । पलाश वजिशिखरिचिंचार्कतिलनालजः । यवजः स्वर्जिका चेति क्षाराष्टकमुदाहृतम् ॥२५८॥ क्षारा एतेऽग्रिना तुल्या गुल्मशूलहरा भृशम् । पलाश (ढाक ), थोहर, अपामार्ग, (पुठकण्डा ) इमली, आक और तिल, नान इन ६ द्रव्योंका अलग अलग क्षार बनाकर इनहीमें जौखार
और सज्जीखार मिला दिया जाय तो इनको क्षाराष्टक कहते हैं। यह भाठ क्षार मिलाकर अग्नि के तुल्य हो जाते हैं तथा गुल्म और शूलको विशेषरूपसे नष्ट करते हैं । २५८ ॥
चुक्रम् । चुकं सहस्रवेधि स्यादसाम्लं शुक्तमित्यपि ॥२५९॥ चुकंमत्यम्लमुष्णं च दीपनं पाचनं परम् ।