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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (७५) वीरणतण-पाचन, शीतल, स्तम्भन करनेवाला, हलका, तिक, मधुर तथा ज्वर, वमन, मद कफ, पित्त, तृष्णा, रक्तविकार, विष, विसर्प, रुच्छ, दाह तथा व्रण इनको नष्ट करता है ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
उशीरम् । वीरणस्य तु मूलं स्यादुशीरं नलदं च तत् ।। ८६॥ अमृणालं च सेव्यं च समगन्धकमित्यपि । उशीरं पाचनं शीतं स्तंभनं लघु तिक्तकम् ॥ ८७ ।। मधुरं ज्वरहद्धांतिमदनुत्कफपित्तहत् । तृष्णास्रविषवीसर्पदाहकृच्छ्रवणापहम् ॥ ८८॥ वीरणकी जदको उशीर, जलद, अमृणाल, सेव्य, समगन्धक कहा जाता है । हिन्दी में इसको खस कहते हैं।
उसीर (खस) पाचन, शीतल, स्तम्भन करनेवाला, हलका, तिक्त, मधुर तथा उबर, वमन, मद, कफ, पित्त, तृष्णा, रक्तविकार, विष,विसर्प, कृष्छ, दाह और ब्रोंको हरनेवाला है ॥ ८६-८८ ॥
जटामांसी। जटामांसी भूतजटा जटिला च तपस्विनी । मांसी तिक्ता कषाया च मेध्या कांतिबलप्रदा ॥८९॥ स्वाही सिता त्रिदोषास्रदाहवीसर्पकुष्ठनुत् । जटामांसी, भूतजटा जटिला और तपस्विनी यह जटामांसीके संस्कृत नाम हैं। इसको हिन्दीमें बालछड, फारसीमें सुंबुल और अंग्रेजी में Spikenardकहते हैं। · जटामांसी-तिक्त, कसैली, बुद्धिवर्धक कांति और बलको देनेवाली मधुर, शीतल तथा विदोष, रक्तविकार, दाह, विसर्प और कुष्ठको दूर करती है । ८९॥
___Aho! Shrutgyanam.