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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४१) भाङ्गी रूक्षा कटुस्तिक्ता रुच्योष्णा पाचनी लघुः। . दीपनी तुवरा गुल्मरक्तजिन्नाशयेद्धवम् ॥ १८६॥ शोथकासकफश्वासपीनसज्वरमारुतान् । भाी, भृगुभवा, पद्मा, फी, ब्राह्मणयष्टिका, ब्राह्मणी, अङ्गारवल्ली, खरशाक और हलिका यह भागींके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे भारंगी तथा अंग्रेजीमें Clerodendron Seretun कहते हैं. भारंगी-रूक्ष, कटु, तिक्त, रुचिकारक, उष्ण, पाचक हलकी, अग्निदीपक, कसैनी, गुल्म पौर रक्तविकारोके जीतनेवाली, शोथ, कास, कफ, वास, पीनस, ज्वर तथा वात इनको शीघ्र ही नष्ट कर देती है ॥ १८५ ॥ ॥१८६॥
___ अश्मभेदः। पाषाणभेदकोश्मनो गिरभिनिनयोजनी ॥ १८७॥ अश्मभेदो हिमस्तितः कषायो बस्तिशोधनः । भेदनो हंति दोषार्थीगुल्मकृच्छाश्मदुजः ॥१८८॥ योनिरोगान्प्रमेहांश्च प्लीहशूलवणानि च । पाषाणभेद, अश्मन, गिरिभित, भिन्नयोजनी, अश्मभेद यह पापायभेदके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में पाखानभेद, फारसीमें गोशाद तथा अंग्रेजीमें Irissp कहते हैं।
पाषाणभेद-शीतल, तिक्त, कसैला, बस्ति (मसाना) को शुद्ध करने वाला, भेदन करनेवाला तथा वात, पित्त, कफ, अश, गुल्म, कृच्छ, पथरी, हृदयके रोग. योनिरोग, प्रमेह. प्लीहा, शूल तथा व्रोंका नाश करता है। १८७ ॥ १८८॥
धातकी। धातकी धातुपुष्पीच वह्निज्वाला च सा स्मृता १८९ धातकी कटुका शीता मदकृत्तुवरा लघुः। तृष्णातीसारपित्तास्रविषकृमिविसर्पजित् ॥ १९ ॥