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(३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
मेदामहामेदास्थाने शतावरीमूलम् । जीवकर्षभस्थाने विदारीमूलम् ॥ १४४ ॥ काकोलीक्षीरकाकोलीस्थाने अश्वगंधामूलम् । ऋद्धिवृद्धिस्थाने वाराही कंदगुणैस्तत्तुल्यंक्षिपेत् १४५ भेदा, महामेदा, जीवक और ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली तथा ऋद्धि वृद्धिके अभावमें क्रमसे शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध तथा बाराहीकन्दका प्रयोग करे। अर्णत् मेदा और महामेदाके अभाव में शतापर, जीवक और ऋषभकके अभाव में विदारीकन्द काकोली और क्षीरकाकोलीके अभावमें असगन्ध एवं ऋद्धि के तथा वृद्धिके अभावमें वाराही कन्द डालना चाहिये ।। १४३-१४५ ॥
यष्टीमधु ।
यष्टीमधु तथा यष्टीमधुकं क्लीतकं तथा। अन्यत्लीतनकं तत्तु भवेत्तोयमधूलिका ॥ १४६ ॥ यष्टी हिमा गुरुः स्वाद्वी चक्षुष्या बलवर्णकृत् । मुस्निग्धा शुकला केश्या स्वापित्तानिलास्रजित्॥ व्रणशोथविषच्छदितृष्णाग्लानिक्षयापहा ॥ १४७॥ यष्टीमधु, यष्टीमधुक, क्लीतक, यह मधुयष्टिके नाम हैं। जो मधुष्टि जल में उत्पन्न होती है उसे क्लीतक और क्लीतनक कहते हैं। मधुयष्टिको हिन्दीमें मुलैठी, फारसीमें बेखमेहेक्मर तथा परवीमें असल-प्रसूस अङ्गरेजीमें Liguariel poor कहते हैं । मधुयष्टी-शीतल, भारी, मधुर, नेबोंको हितकर, बल तथा वर्णके लिये हितकारी, स्निग्ध, बीर्यवर्धक, केशों और स्वरको बढानेवाली तथा पित्त, वायु, व्रण, शोथ, विष, वमन, प्यास, ग्तानी तथा क्षयको दूर करती हैं ॥ १४६ ।। १४७ ।।
Shrutgyanam